एकत्व : धर्म का लक्ष्य
(न्यूयार्क में दिया हुआ भाषण, १८९६ ई०)
हमारा यह संसार-इंद्रियों, बुद्धि और युक्ति का संसार-दोनों ही ओर अनंत,
अज्ञेय और अज्ञात से परिसीमित है। यह अनंतता ही हमारी खोज है, इसी में
अनुसंधान के विषय है, इसीमें तथ्य हैं और इसी से प्राप्त होने वाले प्रकाश को
संसार धर्म कहता है। इस तरह धर्म वस्तुतः इंद्रियातीत भूमिका की वस्तु है,
ऐंद्रिक भूमिका की नहीं। वह समस्त तर्क के परे है, बुद्धि के स्तर को नहीं। यह
एक अलौकिक दिव्य दर्शन है, एक अंतःप्रेरणा है, यह मानो अज्ञात और अज्ञेय के
उदधि में डुबकी लगाना है, जिससे ज्ञानातीत ज्ञात से अधिक ज्ञात हो जाता है,
क्योंकि वह कभी 'जाना' नहीं जा सकता। जैसा कि मेरा विश्वास है, यह खोज मानवता
के आदि काल से ही जारी है। विश्व के इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं हुआ, जब
मनुष्य की बुद्धि इस संघर्ष, अनंत की इस खोज में व्यस्त न रही हो। हमारे मन का
जो नन्हा सा संसार है, उसमें हम विचारों को उठते हुए पाते हैं। ये विचार कहाँ
से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं, हम नहीं कह सकते। और बृहत् ब्रह्मांड और
सूक्ष्म ब्रह्मांड एक ही लोक में हैं, उन्हीं अवस्थाओं को पार करते हैं, वही
स्वर स्पंदित करते हैं।
अब तुम्हारे समक्ष हम हिंदुओं के इस सिद्धांत को रख रहे हैं कि धर्म कहीं बाहर
से नहीं आता, बल्कि व्यक्ति के अभ्यंतर से ही उदित होता है। मेरी यह आस्था है
कि धार्मिक विचार मनुष्य की रचना में ही सन्निहित हैं, और यह बात इस सीमा तक
सत्य है कि चाहकर भी मनुष्य धर्म का त्याग तब तक नहीं कर सकता, जब तक उसका
शरीर है, मन है, मस्तिष्क है, जीवन है। जब तक मनुष्य में सोचने की शक्ति
रहेगी, तब तक यह संघर्ष चलता ही रहेगा और तब तक किसी न किसी रूप में धर्म
रहेगा ही। इस तरह विश्व में हमें धर्म के विभिन्न रूप मिलते हैं। बात कुछ विकट
ज़रूर लगती है; पर ऐसा नहीं कहा जा सकता, जैसा कुछ लोग कहते है कि यह सब
निरर्थक परिकल्पना है। इस विस्वरता के मध्य एक समस्वरता भी है। इन समस्त
बेसुरी ध्वनियों में समसुरता का भी एक स्वर है, और जो सुनना चाहे, वह उसे सुन
सकता है।
वर्तमान काल में सबसे बड़ा प्रश्न है : अगर ज्ञात और ज्ञेय जगत् का आदि और अंत
अज्ञात तथा अनंत अज्ञेय द्वारा सीमाबद्ध है, तो उस अज्ञात के लिए हम प्रयास ही
क्यों करें? क्यों न हम ज्ञात जगत् में ही संतुष्ट रहें ? क्यों न हम खाने,
पीने और संसार की किंचित् भलाई करने में ही संतुष्ट रहें ? ये प्रश्न अक्सर
सुनने को मिलते हैं। विद्वान् प्राध्यापक से लेकर तुतलाते बच्चे तक से कहा
जाता है, "संसार की भलाई करो; यही सारा धर्म है। इसके परे क्या है, इससे
संबंधित प्रश्नों से व्यर्थ अपने को परेशान मत करो।" यह बात इतनी चल पड़ी है
कि उसने एक कहावत का रूप ले लिया है।
किंतु सौभाग्यवश हम अनंत के बारे में जिज्ञासा किए बिना नहीं रह सकते। यह जो
वर्तमान है, व्यक्त है, वह तो अव्यक्त का एक अंश मात्र है। इंद्रियों की चेतना
के धरातल पर जो अनंत आध्यात्मिक जगत् प्रक्षेपित है, यह इंद्रिय-जगत् उसका एक
नन्हा सा अंश है। ऐसी स्थिति में उस अनंत विस्तार को समझे बिना यह नन्हा सा
प्रक्षेपित भाग कैसे समझा जा सकता है ? सक्रेटिस के बारे में ऐसा कहा जाता है
कि एक बार एथेन्स में भाषण करते समय उससे एक ब्राह्मण की मुलाक़ात हुई। वह
ब्राह्मण यूनान की सैर कर चुका था। सक्रेटिस ने उससे कहा कि मनुष्य के अध्ययन
का सबसे महत्वपूर्ण विषय मनुष्य ही है। इस पर ब्राह्मण ने तुरंत उत्तर दिया,
"ईश्वर को जाने बिना तुम मनुष्य को कैसे जान सकते हो ?" यह ईश्वर, यह शाश्वत
अज्ञेय सत्ता, यह ब्रह्मा, यह अनंत अथवा अनाम-चाहे तुम जिस किसी भी नाम से उसे
पुकारो-ज्ञात और ज्ञेय जगत् का, वर्तमान जीवन का मलभूत सिद्धांत है, उसकी
व्याख्या की कुंजी है। तुम अपने सामने की किसी भी वस्तु को ले लो, कोई भी
अत्यंत भौतिक वस्तु-भौतिक विज्ञानों में से ही किसीको ले लो, चाहे
रसायनशास्त्र हो अथवा भौतिकशास्त्र, चाहे नक्षत्र-विज्ञान हो अथवा
जीव-विज्ञान-उसको लेकर उसका अध्ययन करो। उत्तरोत्तर स्थूल से सुक्ष्म तथा
सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर तत्त्वों की ओर बढ़ते बढ़ते तुम एक ऐसे बिंदु पर आ
जाओगे, जहाँ से आगे बढ़ने के लिए तुमको भौतिक से अभौतिक पर चला आना पडेगा।
ज्ञान के हर क्षेत्र में स्थूल सूक्ष्म में समाहित हो जाता है और भौतिक
तात्त्विक में।
इसी प्रकार मनुष्य को बाध्य होकर जगदतीत सत्ता के अध्ययन में उतरना होता है।
अगर हम इस जगत् के परे के तत्व को न जानें, तो जीवन रेगिस्तान बन जाएगा, मानव
जीवन निस्सार हो जाएगा। यह कहना तो बड़ा अच्छा है कि प्रस्तुत क्षण की वस्तुओं
से ही संतुष्ट रहो। गाय और कुत्ते तो वैसे संतुष्ट हैं ही; सभी जानवर ही उस
तरह संतुष्ट हैं, और यही उन्हें जानवर बनाए हुए है। तो फिर मनुष्य भी अगर अनंत
की खोज से मुंह मोड़कर वर्तमान जीवन में ही संतुष्ट रहने लगे, तो मानव जाति को
एक बार फिर पशुत्व के धरातल पर जाना पड़ेगा। यह धर्म ही है, परे की खोज ही है,
जो मनुष्य और पशु में भेद करती है। ठीक ही तो कहा गया है कि मनुष्य ही एक ऐसा
प्राणी है, जो स्वभावतः ऊपर की ओर देखता है, अन्य सभी प्राणी स्वभावतः नीचे की
ओर देखते हैं। ऊपर की ओर देखना, ऊपर उठना तथा पूर्णता की खोज करना--इसे ही
मोक्ष कहते हैं। जितनी जल्दी कोई मनुष्य ऊपर उठने लगता है, उतनी ही जल्दी वह
मोक्ष की ओर उन्मुख होता है। यह बात इस पर नहीं निर्भर करती कि तुम्हारे पास
कितने पैसे हैं, तुम कौन सी पोशाक पहनते हो, अथवा तुम कैसे मकान में रहते हो,
बल्कि यह इस पर निर्भर है कि तुम्हारे मन में कितनी बड़ी आध्यात्मिक निधि है।
यही मानव को उन्नति की ओर ले जाती है, यही भौतिक और बौद्धिक प्रगति का
मूलस्रोत है, तथा यही मानव को सदैव आगे बढ़ाने वाला उत्साह, और पृष्ठभूमि में
रहने वाली प्रेरक शक्ति है।
धर्म रोटी में नहीं है, मकान में नहीं है। बार बार लोग प्रश्न करते हैं, "धर्म
से आखिर कौन सी भलाई होगी? क्या यह गरीबों की दरिद्रता दूर कर सकेगा, उनके लिए
वस्त्रों का प्रबंध कर सकेगा ?" मान लो कि धर्म ये सब नहीं कर सकता। तो क्या
इससे धर्म की असत्यता सिद्ध हो जाएगी ? मान लो, तुम ज्योतिष के किसी सिद्धांत
की चर्चा कर रहे हो और कोई बच्चा आकर कहने लगे, "क्या यह मीठी रोटी ला देगा?"
तुम कहोगे, "नहीं, यह नहीं लाने वाला है।" इस पर बच्चा कहेगा, "तब तो यह बेकार
है।" विश्व को देखने का बच्चों का अपना दृष्टिकोण है--वही रोटी ला देने वाला।
और ठीक ऐसी ही बातें संसार के ये नादान बच्चे भी करते हैं।
हमें उच्च स्तर की वस्तुओं को अपने निम्न स्तरीय मापदंड से नहीं मापना चाहिए।
हर चीज़ के मापन का अपना स्तर होता है। इसलिए अनंत तत्व का मूल्यांकन भी अनंत
स्तरीय प्रतिमान से ही हो सकता है। धर्म संपूर्ण मानव जीवन में परिव्याप्त है,
न केवल वर्तमान में, अपितु भूत और भविष्य में भी। अतः उसे हम शाश्वत आत्मा का
शाश्वत ब्रह्मा से शाश्वत संबंध कह सकते हैं। पाँच मिनट के इस मानव जीवन पर
इसका क्या प्रभाव पड़ता है, केवल इसी बात से हम कैसे इसके मूल्य को जाँच सकते
हैं ? पर ये सभी तर्क तो नकारात्मक हैं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या धर्म सचमुच कुछ कर सकता है ? हाँ, कर सकता है। उससे
मानव अनंत जीवन प्राप्त करता है। मनुष्य वर्तमान में जो है, वह इस धर्म की ही
शक्ति से हुआ है, और उससे ही यह मनुष्य नामक प्राणी देवता बनेगा। धर्म यही
करने में समर्थ है। मानव-समाज से धर्म को हटा दो-क्या शेष बचेगा? ऐसा होने पर
संसार हिंस्र जंतुओं से घिरा अरण्य बन जाएगा। इंद्रियसुख मानव जीवन का लक्ष्य
नहीं है, ज्ञान ही सकल प्राणी का लक्ष्य है।
हम देखते हैं कि एक पशु जितना आनंद अपनी इंद्रियों के माध्यम से पाता है, उससे
अधिक आनंद मनुष्य अपनी बुद्धि के माध्यम से अनुभव करता है। साथ ही हम यह भी
देखते हैं कि मनुष्य आध्यात्मिक प्रकृति का बौद्धिक प्रकृति से भी अधिक आनंद
प्राप्त करते हैं। इसलिए मनुष्य का परम ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान ही माना जा
सकता है। इस ज्ञान के होते ही परमानंद की प्राप्ति होती है। संसार की सारी
चीज़ें मिथ्या, छाया मात्र हैं, वे परम ज्ञान और आनंद की तृतीय या चतुर्थ स्तर
की अभिव्यक्तियाँ हैं।
एक प्रश्न और : लक्ष्य क्या है ? आजकल लोग कहते हैं कि मनुष्य दिन दूनी रात
चौगुनी प्रगति कर रहा है। किंतु उसके समक्ष कोई ऐसा बिंदु नहीं, जिसे वह अपने
पूर्णतम विकास का प्रतीक मान ले। सतत आगे बढ़ते जाओ, पर पहुँचो कहीं नहीं।
इसका जो भी अर्थ हो, कितना ही अद्भुत यह क्यों न हो, किंतु है एकदम अनर्गल।
क्या कोई भी गति सीधी रेखा में होती है ? और यदि सीधी रेखा अनंत दूरी तक
बढ़ायी जाए, तो वह एक वृत्त बना देती है, और आदि बिंदु पर लौट आती है। जहाँ से
तुमने प्रारंभ किया था, वहीं लौटकर आना पड़ेगा। अगर तुमने ईश्वर से प्रारंभ
किया है, तो अंततः ईश्वर ही के पास आना पड़ेगा। तब शेष क्या रह जाएगा?
तुम्हारा स्फुट कार्य। अनंत काल तक तुमको स्फुट कार्य करते रहना पड़ेगा।
एक दूसरा प्रश्न भी है : क्या प्रगति के पथ में हम नये धार्मिक सत्यों का भी
अनुसंधान कर सकते हैं ? हाँ, और नहीं भी। पहले तो हम धर्म के बारे में इससे
अधिक अब नहीं जान सकते। जो ज्ञेय था, वह ज्ञात हो चुका। संसार के सभी धर्म
घोषित करते हैं कि हम सबों में एकता का कोई न कोई सूत्र है। अगर हम उस दैवी
सत्ता से एक हो चुके, तो इस अर्थ में आगे और प्रगति नहीं हो सकती। जान का अर्थ
है, विविधता में इस एकता की उपलब्धि। मैं तुम लोगों के बीच स्त्री और पुरुष
देखता हूँ-यह हुई विविधता। यदि मैं तुम सब लोगों को एक ही वर्ग में रखकर मानव
कहूँ, तो यह वैज्ञानिक ज्ञान कहा जाएगा। दृष्टांत के लिए रसायनशास्त्र को लो।
सभी ज्ञात पदार्थों को रसायनशास्त्री उनके मौलिक तत्त्वों में विश्लेषित करना
और यदि संभव हो, तो उस एक तत्व को खोज लेना चाहते हैं, जिससे ये सब उद्भूत हुए
हैं, ऐसा समय आ सकता है, जब वे इस एक तत्व को जान लेंगे। उसका पता चल जाने पर
वे और आगे नहीं जा सकेंगे, रसायनशास्त्र पूर्ण हो जाएगा। ठीक यही बात,
आध्यात्मिक विज्ञान के साथ भी है। यदि हम इस मौलिक एकता को जान लेते हैं तो और
आगे प्रगति नहीं हो सकती।
इसके बाद प्रश्न यह है; इस प्रकार का एकत्व क्या संभव है ? भारत में अत्यंत
प्राचीन काल से ही धर्म ही दर्शन के विज्ञान के आविष्कार का प्रयत्न चल रहा
है; क्योंकि पाश्चात्य देश में जिस प्रकार इन दोनों को पृथक भाव से देखना ही
प्रचलित है, हिंदू इन दोनों में उस प्रकार का प्रभेद नहीं देखते। हम धर्म और
दर्शन को एक वस्तु के ही दो विभिन्न भाव मानते हैं, जो समभाव से युक्ति और
वैज्ञानिक सत्य में आधारित होना चाहिए।
सांख्य दर्शन केवल भारत का क्यों, समग्र जगत् का सर्वप्राचीन दर्शन है। इसके
महान व्याख्याता कपिल सकल हिंदू मनोविज्ञान के जनक हैं, और वे जिस प्राचीन
दर्शन-प्रणाली का उपदेश दे गए हैं, वह इस समय भी भारत के वर्तमान सर्वमान्य
दर्शन-प्रणाली की आधारशिला है। इन सब दर्शनों के अन्य विषयों में चाहे जितना
मतभेद क्यों न रहे, सबने सांख्य का मनोविज्ञान ग्रहण किया है।
सांख्य के युक्तिसंगत परिणामरूप वेदांत उसके सिद्धांतों को लेकर और अधिक दूर
अग्रसर हुआ है। कपिल के द्वारा उपदिष्ट ब्रह्मांडविज्ञान के सहित सहमत होने पर
भी वेदांत द्वैतवाद में समाप्त होने में परितुष्ट नहीं हुआ है, लेकिन उसकी खोज
अंतिम एकत्व के लिए, जो विज्ञान और धर्म के समान लक्ष्य है, चलती रहेगी।
ब्रह्मांडविज्ञान
हमारे सम्मुख दो शब्द है--सूक्ष्म ब्रह्मांड और बृहत् ब्रह्मांड; अंतः और
बहिः। हम अनुभव के द्वारा ही दोनों से सत्य प्राप्त करते हैं। आभ्यंतर अनुभूति
के द्वारा प्राप्त सत्य मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म है। बाह्य अनुभव से भौतिक
विज्ञान प्राप्त होते हैं। अतः किसी पूर्ण सत्य का इन दोनों जगतों के अनुभव के
साथ समन्वय होना चाहिए। सूक्ष्म ब्रह्मांड बृहत् ब्रह्मांड की साक्षी प्रदान
करेगा, बृहत् ब्रह्मांड सूक्ष्म ब्रह्मांड की। भौतिक सत्य का समनुरूप
अंतर्जगत् में, और अंतर्जगत् के सत्य का प्रमाण भी बहिर्जगत् में मिलना चाहिए।
तथापि इन सब सत्यों का अधिकांश सर्वदा परस्पर विरोधी पाया जाता है।
विश्व-इतिहास के एक काल में 'अंतर्वादी' प्रधान हो उठे; और उन्होंने
'बहिर्वादियों' के साथ विवाद आरंभ किया। वर्तमान काल में 'बहिर्वादी' अर्थात्
भौतिक वैज्ञानिकों ने प्रधानता प्राप्त की है, और उन्होंने मनोवैज्ञानिकों और
दार्शनिकों के अनेक सिद्धांतों को उड़ा दिया है। जहाँ तक मेरा ज्ञान है, मुझे
मनोविज्ञान के सच्चे सार-तत्व के साथ आधुनिक भौतिक विज्ञान के सार-तत्व का
पूर्ण सामंजस्य लगता है। एक व्यक्ति सब विषयों में महान नहीं हो सकता; इसी
प्रकार एक ही जाति सभी प्रकार के ज्ञान का अनुसंधान करने में समान रूप से
समर्थ नहीं हो सकती। आधुनिक यूरोपीय राष्ट्र बाह्य भौतिक ज्ञान के अनुसंधान
में सुदक्ष हैं, किंतु वे मनुष्य की अंतःप्रकृति के अनुसंधान में उतने पटु
नहीं हैं। दूसरी ओर प्राच्य लोग बाह्य भौतिक जगत् के अनुसंधान में उतने दक्ष
नहीं थे, किंतु अंतस्तत्त्व की गवेषणा में उन्होंने विशेष दक्षता का परिचय
दिया है। इसीलिए हम देखते हैं कि प्राच्य भौतिक तथा अन्य विज्ञान पाश्चात्य
विज्ञानों से नहीं मिलते, और न पाश्चात्य मनोविज्ञान प्राच्य मनोविज्ञान से।
पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने प्राच्य भौतिक वैज्ञानिकों को विध्वस्त कर दिया है।
फिर भी दोनों ही सत्य की भित्ति पर प्रतिष्ठित होने का दावा करते हैं और, हम
जैसा पहले ही कह चुके हैं, किसी भी क्षेत्र के सत्यज्ञान में कभी परस्पर विरोध
नहीं हो सकता; आभ्यंतर सत्य के साथ बाह्य सत्य का सामंजस्य है।
हम सभी आधुनिक ज्योतिष और भौतिक वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड के
सृष्टिविषयक सिद्धांतों को जानते हैं, और यह भी जानते हैं कि उन्होंने यूरोप
का ईश्वरविज्ञान किस भीषणता से ध्वस्त किया है और नये वैज्ञानिक आविष्कार किस
प्रकार उनके किले पर बम जैसा गिराते हैं, और हम यह भी जानते हैं कि
धर्मवैज्ञानिकों ने किस प्रकार सदैव वैज्ञानिक अनुसंधानों को बंद कर देने का
यत्न किया है।
यहाँ मैं ब्रह्मांडविज्ञान और उसके आनुषंगिक विषयों के संबंध में प्राच्य
मनोवैज्ञानिक धारणाओं का सिंहावलोकन करना चाहता हूँ, तब तुम देखोगे कि आधुनिक
विज्ञान की नूतनतम खोजों के साथ उनका कितना आश्चर्यप्रद संबंध है, और यदि
सामंजस्य में कहीं कुछ कमी रह जाती है, तो यह आधुनिक विज्ञान की कमी है, उनकी
नहीं। हम सब अंग्रेज़ी शब्द 'नेचर' (Nature) का व्यवहार करते हैं। प्राचीन
सांख्य दार्शनिक उसके लिए दो भिन्न नामों का प्रयोग करते थे; प्रथम,
प्रकृति-जो अंग्रेज़ी के 'नेचर' शब्द का प्रायः समानार्थक है, और दूसरा उसकी
अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक नाम है 'अव्यक्त'-जो व्यक्त अथवा प्रकाशित या भेदात्मक
नहीं है-उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुए हैं, उससे अणु-परमाणु, भूत, शक्ति, मन,
बुद्धि सब प्रसूत हुए हैं। यह अत्यंत विस्मयजनक है कि भारतीय दार्शनिकों ने
अनेक युग पहले ही कहा था कि मन भौतिक है। हमारे आधुनिक जड़वादियों ने इसके
अतिरिक्त और अधिक क्या दिखाने का प्रयत्न किया है कि मन भी देह की तरह प्रकृति
से उत्पन्न है ? विचार के संबंध में भी यही बात है, और क्रमशः हम देखेंगे कि
बुद्धि भी उसी एक ही अव्यक्त नामधेय प्रकृति से उत्पन्न हुई है। सांख्यों ने
इस अव्यक्त का लक्षण बताया है, तीन शक्तियों की 'साम्यावस्था'। उनमें से एक का
नाम सत्त्व, दूसरी का रजस् और तीसरी का तमस् है। तमस् निम्नतम शक्ति
है-आकर्षणस्वरूप; रजस उसकी अपेक्षा किंचित् उच्चतर है-विकर्षणस्वरूप; तथा जो
सर्वोच्च शक्ति इन दोनों का संतुलनस्वरूप है, सत्त्व है। अतएव जब आकर्षण और
विकर्षण की शक्तियाँ सत्त्व के द्वारा पूर्णतः संयत होती हैं अथवा पूर्ण
साम्यावस्था में रहती हैं, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं रहता, किंतु ज्यों ही
यह साम्यावस्था नष्ट होती है, त्यों ही उनका संतुलन भंग हो जाता है और उनमें
से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्यों ही गति का
आरंभ होता है और सृष्टि होने लगती है। यह व्यापार चकाकार काल के कल्पों में
चला करता है। अर्थात् साम्यावस्था भंग होने का एक समय होता है, तब शक्तियों का
संघात और पुनस्संघात होने लगता है और वस्तुएँ प्रक्षिप्त होती हैं। साथ ही हर
वस्तु में उसी आदिम साम्यावस्था में फिर से लौटने की प्रवृत्ति होती है, और
ऐसा समय आता है, जब जो कुछ व्यक्त भावापन्न है, उन सबका संपूर्ण विनाश हो जाता
है। फिर कुछ समय के बाद यह अवस्था नष्ट हो जाती है, संपूर्ण वस्तुएँ
प्रक्षिप्त होती है और धीरे-धीरे तरंग के समान फिर तिरोभूत हो जाती हैं। जगत्
की सारी गति को, इस विश्व की प्रत्येक वस्तु को तरंग के सदृश माना जा सकता है,
जिसमें क्रमशः एक बार उत्थान, फिर पतन होता रहता है। इन दार्शनिकों में से कुछ
का मत यह है कि समग्र ब्रह्मांड ही कुछ दिनों के लिए लयप्राप्त होता है। कुछ
का मत है कि कुछ मंडलों में ही लय का यह व्यापार घटित होता है। अर्थात्, यदि
हमारा यह सौर-जगत् लयप्राप्त होकर अव्यक्त अवस्था में चला जाए, तो भी उसी समय
अन्य कोटिशः जगतों में उसके ठीक विपरीत व्यापार होगा, और उनमें सृष्टि चलती
रहेगी। मैं इस दूसरे मत के--अर्थात् प्रलय एक साथ समस्त ब्रह्मांड में घटित
नहीं होता, विभिन्न जगतों में विभिन्न व्यापार चलते रहते हैं--के ही पक्ष में
अधिक हूँ। किंतु मूल बात एक ही रहती है, अर्थात् जो कुछ हम देख रहे हैं-यह
समग्र प्रकृति ही, क्रमागत उत्थान-पतन के नियम से अग्रसर हो रही है। इस भंग
होने, संतुलन पुनः प्राप्त करने, पूर्ण सामंजस्य की अवस्था को प्रलय, एक कल्प
का अंत कहते हैं। विश्व के प्रलय एवं प्रक्षेप की तुलना भारत के ईश्वरवादियों
ने ईश्वर के निःश्वास-प्रश्वास के साथ की है। मानो ईश्वर के प्रश्वास से यह
जगत् बहिर्गत होता है, और वह उनमें फिर लौट जाता है। जब प्रलय होता है, तब
जगत् की क्या अवस्था होती है ? वह उस समय भी विद्यमान रहता है, तथापि सूक्ष्म
रूप में; अथवा, जैसा सांख्य दर्शन कहता है, कारणावस्था में रहता है।
देश-कालनिमित्त से वह मुक्त नहीं होता, किंतु वे अत्यंत सूक्ष्म और लघु रूप
में रहते हैं। मान लो, विश्व संकुचित्त होने लगता है, और हम सब एक अणु के
बराबर रह जाते हैं। किंतु तो भी हम इस परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पायेंगे,
क्योंकि हमसे संबद्ध प्रत्येक वस्तु का संकोच भी साथ ही साथ होगा। सारी वस्तु
विलीन हो जाती है और फिर व्यक्त हो जाती है, कारण कार्य उत्पन्न करता है, और
यही क्रम चलता रहता है।
आजकल हम जिसे जड़ कहते हैं, उसे प्राचीन हिंदू भूत अर्थात् बाह्य तत्व कहते
थे। उनके मतानुसार एक तत्व नित्य है, शेष सब तत्व इसी एक से उत्पन्न हुए हैं।
इस मूल तत्व को 'आकाश' की संज्ञा प्राप्त है। आजकल 'ईथर' शब्द से जो भाव
व्यक्त होता है, यह बहुत कुछ उसके सदृश है, यद्यपि पूर्णतः नहीं। इस तत्व के
साथ प्राण नाम की आद्य ऊर्जा रहती है। प्राण और आकाश संघटित और पुनस्संघटित
होकर शेष तत्त्वों का निर्माण करते हैं। कल्पान्त में सब कुछ प्रलयगत होकर
आकाश और प्राण में प्रत्यावर्तन करता है। जगत् की प्राचीनतम मानवीय रचना
ऋग्वेद में सृष्टि का वर्णन करते हुए एक अत्यंत सुंदर और परम काव्यमय पद
है--'जब सत् भी नहीं था, असत् भी नहीं था, तम के द्वारा तम घिरा था, तब क्या
था ?' और इसका उत्तर दिया गया है, 'तब वह निस्पन्द अवस्था में था।' इस प्राण
की सत्ता तब थी, किंतु उसमें कोई गति नहीं थी। आनीददातम् का अर्थ है, 'बिना
स्पंदन के अस्तित्ववान था।' स्पंदन का विराम हो चुका था। तब एक विशाल विराम के
उपरांत जब कल्प का आरंभ होता है, तब आनीदवातम् (निस्पंद परमाणु) स्पंदन आरंभ
कर देता है। और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। परमाणु घनीभूत
होते है, और उनके संघटन की इस प्रक्रिया में विभिन्न तत्व बन जाते हैं। हम
साधारणतः देखते हैं, लोग इन सब बातों का अत्यंत अद्भुत अंग्रेज़ी अनुवाद किया
करते हैं। लोग अनुवाद के लिए दार्शनिकों और भाष्यकारों की सहायता नहीं लेते,
और उनमें भी इतनी विद्या नहीं है कि वे स्वतः यह सब समझ सकें। कोई मूर्ख
संस्कृत के तीन अक्षर पढ़ता है और उसीसे एक पूरी पुस्तक का अनुवाद कर डालता है
! वे भूत-समूह का वायु, अग्नि आदि के रूप में अनुवाद किया करते हैं। यदि वे
भाष्यकारों के भाष्यों की चर्चा करते, तो वे देख पाते कि उनका मतलब वायु या
अन्य किसी से नहीं है। प्राण के बार-बार आघात के द्वारा आकाश से वायु अथवा
स्पंदन उत्पन्न होता है। यह वायु स्पंदित होती है और जब ये स्पंदन अधिकाधिक
तीव्र हो जाते हैं, तो पहले घर्षण एवं बाद में ताप या तेज़ की उत्पत्ति होती
है। तब यह ताप तरल भाव धारण करता है, उसे अप कहते हैं। अंत में यह तरल पदार्थ
आकार प्राप्त करता है। पहले हमें आकाश (ether) और गति प्राप्त हुई, उसके
पश्चात् ताप उत्पन्न होता है, फिर वह तरल हो जाता है, तब धनीभूत होकर जड़
पदार्थ का आकार धारण करता है इसके बाद ठीक विलोम क्रम में यह प्रत्यावर्तन
करता है। पदार्थ तरलीभूत होता है, और बाद में उत्तापराशि के रूप में परिणत
होता है, वह फिर धीरे-धीरे गति को पुनः प्राप्त करता है; उस गति का भी विराम
हो जाएगा और यह कल्प भी विनष्ट होगा। फिर वह प्रत्यावर्तन करेगा और फिर आकाश
(ether) के रूप में विघटित हो जाएगा। आकाश की सहायता के बिना प्राण स्वयं
कार्य नहीं कर सकता। गति, स्पंदन या विचार के रूप में हम जो जानते हैं, वे
प्राण के ही विकार हैं और जड़ अथवा भूत पदार्थ के नाम से जो कुछ हम जानते हैं,
जो कुछ आकृतिमान अथवा बाधात्मक है, वह इसी आकाश का विकार है। यह प्राण स्वयं
नहीं रह सकता अथवा किसी मध्यवर्ती के बिना काम नहीं कर सकता; जब यह केवल शुद्ध
प्राण ही है, वह आकाश में ही रहता है; और जब वह प्रकृति की शक्ति
में--गुरुत्वाकर्षण या केंद्रापसारी शक्ति के रूप में परिवर्तित होता है,
अवश्य ही उसके लिए जड़ पदार्थ आवश्यक है। तुमने जड़ पदार्थ के बिना शक्ति या
शक्ति के बिना जड़ पदार्थ कभी नहीं देखा है। हम जिन्हें शक्ति और पदार्थ कहते
हैं, वे उन वस्तुओं की स्थूल अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनके सूक्ष्म स्वरूप को
प्राण एवं आकाश कहते हैं, अंग्रेज़ी में प्राण को तुम जीवन या जीवन-शक्ति कह
सकते हो, लेकिन तब इसे केवल मनुष्य जीवन तक ही सीमित न करो। साथ ही इसे आत्मा
के साथ भी एकीकृत न करो। इस प्रकार यह सृष्टि-क्रम चलता है। सृष्टि का न कोई
आरंभ है, न कोई अंत। वह एक चिरंतन प्रवाह है।
अब हम इन प्राचीन मनोवैज्ञानिकों के एक अन्य पक्ष का वर्णन करेंगे, जिसके
अनुसार समस्त स्थूल पदार्थ सूक्ष्म तत्त्वों के परिणाम हैं। प्रत्येक स्थूल
वस्तु सूक्ष्म उपकरणों से निर्मित हुई है, जिन्हें वे तन्मात्रा अर्थात्
सूक्ष्म कणिकाएँ कहते हैं। मैं एक फूल सूंघता हूँ। सूंघने की क्रिया में किसी
वस्तु का मेरी नासिका से संपर्क होना आवश्यक है : फूल तो है, परंतु इसे हम
अपनी ओर खिंचते हुए नहीं देखते। जो कुछ फूल से आता है और जिसका हमारी नासिका
से संपर्क होता है, उसे तन्मात्रा अर्थात् उस पुष्प का अणु कहते हैं। यह बात
ताप, प्रकाश और प्रत्येक अन्य वस्तु के संबंध में घटित होती है। पुनः इन
तन्मात्राओं को परमाणुओं की उपश्रेणी में विभाजित किया जा सकता है। विभिन्न
दार्शनिकों के भिन्न- भिन्न सिद्धांत हैं और हम जानते हैं कि ये केवल सिद्धांत
हैं। हमारे लिए इतना ही जानना पर्याप्त है कि प्रत्येक स्थूल वस्तु अत्यंत
सूक्ष्म उपकरणों से बनी हुई है। हमें पहले स्थूल पदार्थों की प्रतीति होती है,
जिनकी हमें बाह्य अनुभूति होती है। इसके बाद सूक्ष्म तत्त्वों का अनुभव होता
है, जिनके साथ नासिका, चक्षु और कर्ण का संपर्क होता है। ईथर-तरंगें मेरे
नेत्रों को स्पर्श करती हैं, किंतु मैं उन्हें देख नहीं सकता। तो भी मैं जानता
हूँ कि प्रकाश को देखने में समर्थ होने के पूर्व उनका मेरे नेत्रों के संपर्क
में आना आवश्यक है।
आँखें हैं, पर आँखें देखती नहीं है। यदि मस्तिष्क केंद्र को हटा लो, तो आँखें
तो तब भी रहेंगी और नेत्र-पट के ऊपर बाह्य जगत् का चित्र अंकित होगा, तथापि
आँखें देख न सकेंगी। अतः नेत्र केवल गौण साधन हैं, दृष्टि के अंग नहीं।
दर्शनेंद्रिय मस्तिष्क स्थित स्नायु-केंद्र है। इसी प्रकार नासिका एक यंत्र है
और उसके पीछे एक इंद्रिय है। संवेदक अवयव केवल बाह्य साधन-यंत्र हैं। यह कहा
जा सकता है कि यह विभिन्न केंद्र ही जिन्हें संस्कृत में इंद्रिय कहते हैं,
प्रत्यक्ष बोध के वास्तविक स्थान है।
प्रत्यक्ष बोध के हेतु मन का इंद्रिय के साथ संबद्ध होना आवश्यक है। यह
सामान्य अनुभव है कि उस समय जब कि हम अध्ययन में तल्लीन रहते हैं, घड़ी की
ध्वनि नहीं सुनते। क्यों ? कान अपनी जगह पर होते हैं, उनके द्वारा ध्वनि
मस्तिष्क तक पहुँचायी जाती है, तो भी वह सुनी नहीं जाती, क्योंकि मन अपने को
श्रोत्रेंद्रिय से नहीं जोड़ता।
प्रत्येक भिन्न संवेदक अवयव के लिए एक भिन्न इंद्रिय होती है। कारण यह है कि
यदि एक से ही सबका काम लिया जाए, तो फल यह होगा कि जब मन उससे जुड़ेगा, तब सभी
इंद्रियाँ समान रूप से क्रियाशील होंगी। किंतु जैसा कि हमने घड़ी के उदाहरण
में देखा है, बात ऐसी नहीं है। यदि सभी साधनों के लिए एक ही अवयव होता, तो मन
एक ही साथ देखने, सुनने और सूंघने की क्रिया करता और उसके लिए इन सारी
क्रियाओं को एक साथ और एक ही समय न करना संभव न होता। अतः प्रत्येक इंद्रिय के
लिए एक भिन्न अवयव का होना आवश्यक है, आधुनिक शरीरविज्ञान ने इस बात की पुष्टि
की है। निश्चय ही हमारे लिए एक साथ सुनना और देखना संभव है, किंतु ऐसा होने का
कारण यह है कि मन अपने को आंशिक रूप से दो केंद्रों से संबद्ध करता है।
इंद्रियों की रचना किन तत्त्वों से हुई ? हम देखते हैं कि नेत्र, नासिका तथा
कर्ण आदि साधन या यंत्र स्थूल पदार्थ से निर्मित है। इंद्रियाँ भी स्थूल
पदार्थ से बनी है। जिस प्रकार शरीर स्थूल पदार्थों से निर्मित है और वह
भिन्न-भिन्न स्थूल शक्तियों के रूप में प्राण का निर्माण करता है, उसी प्रकार
इंद्रियाँ आकाश वायु, तेज़ आदि सूक्ष्म तत्त्वों से निर्मित है और वे प्राण को
प्रत्यक्ष बोध की सूक्ष्मतर शक्तियों का रूप प्रदान करती हैं। इंद्रियाँ,
प्राण की क्रियाएँ, मन और बुद्धि से मिलकर मनुष्य का सूक्ष्मतर (कारण) शरीर
बनता है। इसे लिंग अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं। लिंग शरीर का वास्तविक एक रूप
होता है, क्योंकि प्रत्येक भौतिक पदार्थ का रूप होता है।
मन को मनस्, वृत्ति में चित्त अथवा स्पंदनशील अर्थात् अस्थिर कहा जाता है। यदि
तुम किसी झील में पत्थर फेंको, तो प्रथम उसमें स्पंदन होगा और फिर प्रतिरोध।
एक क्षण जल में स्पंदन होगा और फिर वह पत्थर के ऊपर प्रतिक्रिया करेगा। इसी
प्रकार जब चित्त पर कोई प्रभाव पड़ता है, तब वह प्रथम किंचित् स्पंदित होता
है। उसी को मनस् कहते हैं। मन प्रभावों को और भीतर ले जाता है और उन्हें
निर्णायक शक्ति बुद्धि के सम्मुख प्रस्तुत करता है, जो स्वयं प्रतिक्रिया करती
है। बुद्धि के पीछे अहंकार अथवा आत्मचेतना है, जो कहती है, 'मैं हूँ।' अहंकार
के पीछे महत् अथवा ज्ञान है, जो प्रकृति की सत्ता की सर्वोच्च स्थिति है।
इनमें से प्रत्येक क्रमानुसार आनेवाली स्थिति का परिणाम है। झील के उदाहरण में
उस पर होनेवाला प्रत्येक प्रहार बाह्य जगत् से होनेवाला प्रहार है, जबकि मन के
ऊपर बाह्य अथवा अंतर्जगत्, दोनों से प्रहार हो सकता है। महत् के परे मनुष्य का
स्वरूप, पुरुष अथवा आत्मा है, विशुद्ध और पूर्ण। केवल वही द्रष्टा है और उसी
के लिए यह सारा परिवर्तन है।
मनुष्य इन सारे परिवर्तनों का द्रष्टा है, वह स्वयं अशुद्ध कभी नहीं होता
किंतु वेदांती जिसे अध्यास, प्रतिबिंब अथवा आरोप कहते हैं, उसके कारण वह
अशुद्ध प्रतीत होता है। वह उस स्फटिक के समान भासता है, जिसके सामने लाल अथवा
नील वर्ण का पुष्प लाया जाता है। रंग उसके ऊपर प्रतिबिंबित होता है, परंतु
स्फटिक स्वयं विशुद्ध है। हम इस बात को मानकर चलेंगे कि आत्माएँ अनेक हैं और
प्रत्येक आत्मा शुद्ध और पूर्ण है तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म
पदार्थ उनके ऊपर अध्यस्त होते हैं और उन्हें बहुरंगी बना देते हैं। प्रकृति यह
सब क्यों करती है ? प्रकृति की यह सब परिवर्तन-क्रिया आत्मा के विकास की हेतु
है। यह सारी सृष्टि आत्मा के हित के लिए है, जिससे वह मुक्ति लाभ कर सके। यह
महान पुस्तक, जिसे हम विश्व कहते हैं, मनुष्य के सम्मुख इसलिए खुली हुई है कि
वह उसे पढ़ सके और अंत में जान जाए कि वह (मनुष्य) सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान
सत्ता है। मैं यहाँ पर यह बता दूं कि हमारे कतिपय सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक
ईश्वर की सत्ता में उस प्रकार विश्वास नहीं करते है, जिस प्रकार तुम लोग
विश्वास करते हो। हमारे मनोविज्ञानशास्त्र के जन्मदाता कपिल ईश्वर की सत्ता
स्वीकार नहीं करते। उनका विचार है कि सगुण ईश्वर बिल्कुल अनावश्यक है। प्रकृति
स्वतः समस्त सृष्टि-रचना करने में समर्थ है। जिसे सृष्टि-रचनावाद का सिद्धांत
कहा जाता है, उसके ऊपर तो उन्होंने प्रत्यक्ष प्रहार किया और कहा कि इससे
बढ़कर मूर्खतापूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन कभी नहीं हुआ। किंतु वे एक विचित्र
प्रकार के ईश्वर को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि हम सभी मुक्त होने के
लिए संघर्ष कर रहे हैं और जब हम मुक्त हो जाते हैं, तब मानो हम प्रकृति में लय
हो जाते हैं और फिर दूसरे चक्र के प्रारंभ में उसके शासक के रूप में पुनः आते
हैं। हम सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान व्यक्तियों के रूप में आते हैं। उस अर्थ में
हम ईश्वर कहे जा सकते है। तुम, मैं और तुच्छातितुच्छ प्राणी विभिन्न चक्रों
में ईश्वर हो सकते हैं। उनका कथन है कि ऐसा ईश्वर अस्थायी होता है, किंतु किसी
ऐसे अविनाशी ईश्वर का, जो अनंत काल तक सर्वशक्तिमान और विश्व का नियंता हो,
होना संभव नहीं है। यदि ऐसा ईश्वर हो, तो यह समस्या उठ खड़ी होगी : अवश्य ही
वह या तो बद्धात्मा होगा या मुक्त पुरुष। पूर्ण मुक्त ईश्वर सृष्टि नहीं
रचेगा--उसे इसकी आवश्यकता न होगी। यदि वह बद्ध होगा, तो भी वह रचना नहीं
रचेगा, क्योंकि वह कर नहीं सकता--वह शक्तिविहीन होगा। दोनों परिस्थितियों में
कोई सर्वज्ञ अथवा सर्वशक्तिमान अनंत ईश्वर नहीं हो सकता। वे कहते हैं कि हमारे
धर्मशास्त्रों में जहाँ कहीं भी ईश्वर शब्द का प्रयोग हुआ है, वहाँ उसका आशय
उन मनुष्यों से है, जो मुक्त हो चुके हैं।
कपिल समस्त आत्माओं की एकता में विश्वास नहीं करते। जहाँ तक उनके विश्लेषण की
बात है, वह बड़ा अद्भुत है। वे भारतीय विचारकों के पितामह हैं। बौद्ध धर्म तथा
अन्य मतवाद उन्हीं के विचारों के परिणाम हैं।
उनके मनोविज्ञान के अनुसार सभी आत्माएँ अपनी मुक्ति तथा अपने नैसर्गिक
अधिकार--सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता--का पुनर्लाभ कर सकती हैं। परंतु एक
प्रश्न उठता है : यह बंधन कहाँ है ? कपिल कहते हैं कि यह अनादि है। किंतु यदि
इसका आदि नहीं है, तो इसका अंत भी नहीं होगा और हम कभी भी मुक्त न होंगे। वे
कहते हैं कि यद्यपि बंधन अनादि है, तथापि वह इस प्रकार का नित्य और एकरूप नहीं
है, जिस प्रकार आत्मा। दूसरे शब्दों में प्रकृति (बंधन का कारण) अनादि और अनंत
है, किंतु उसी भाव में नहीं, जिसमें आत्मा, क्योंकि प्रकृति का कोई व्यक्तित्व
नहीं है। वह उस नदी के समान है, जो प्रत्येक क्षण नवीन जलराशि प्राप्त करती
है। इस समस्त जलराशि का योग नदी है। किंतु नदी एक स्थिर राशि नहीं है। प्रकृति
की प्रत्येक वस्तु निरंतर परिवर्तित हो रही है, किंतु आत्मा नहीं बदलती। अतः
चूंकि प्रकृति सदैव परिवर्तित हो रही है, आत्मा का उसके बंधन से मुक्त होना
संभव है।
जिस योजना के अनुसार विश्व का एक अंश बना हुआ है, उसी के आधार पर संपूर्ण
विश्व निर्मित है। अतः जिस प्रकार हमारा मन है, उसी प्रकार ब्रह्मांड का भी एक
मन है। जो बात पिंड में है, वही बात ब्रह्मांड में भी है। ब्रह्मांड का स्थूल
शरीर है और उसके पीछे उसका सूक्ष्म शरीर है, उसके भी पीछे ब्रह्मांड का अहंकार
और उसके बाद उसका महत्व। यह सब कुछ प्रकृति में ही है, प्रकृति की अभिव्यक्ति
है, उसके बाहर नहीं।
हम अपने माता-पिता से अपना स्थूल शरीर तथा चेतना प्राप्त करते हैं। कठोर
आनुवंशिकता का कहना है कि हमारा शरीर हमारे माता-पिता के शरीर का एक अंश है
तथा हमारी चेतना और अहंकार के उपकरण हमारे माता-पिता का एक अंश हैं। हम अपने
माता-पिता से प्राप्त अंश में ब्रह्मांड की चेतना से प्राप्त किए हुए अंश को
जोड़ सकते हैं। महत्तत्त्व (ज्ञान) का एक अनंत भण्डार है, जिसमें से हम अपनी
आवश्यकतानुसार ग्रहण कर सकते हैं। ब्रह्मांड में मानसिक शक्ति का अक्षय भंडार
है, जिसमें से हम निरंतर ग्रहण कर रहे हैं। किंतु माता-पिता से उस बीज का
प्राप्त करना अनिवार्य है। हमारा सिद्धांत आनुवंशिकता और पुनर्जन्म, दोनों का
योग है। आनुवंशिकता से नियम के अनुसार पुनर्जन्म ग्रहण करनेवाली आत्मा
माता-पिता से उन उपकरणों को प्राप्त करती है, जिनसे वह मनुष्य की रचना करती
है।
कुछ यूरोपीय विद्वानों का कथन है कि यह संसार इसलिए है, क्योंकि मैं हूँ और
यदि मैं न होऊँ, तो यह संसार भी न हो। कभी-कभी इसी बात को इस प्रकार कहा जाता
है : यदि संसार के सभी लोग मर जायँ और मनुष्य शेष न रहें तथा अनुभूति और
बुद्धि से समन्वित कोई जीव न रहे, तो यह समस्त अभिव्यक्ति समाप्त हो जाएगी।
किंतु ये यूरोपीय दार्शनिक इस (संसार) के मनोविज्ञान को नहीं जानते, यद्यपि वे
इसके सिद्धांत से परिचित्त हैं। आधुनिक दर्शनशास्त्र को केवल इसकी झलक भर
प्राप्त है। यदि सांख्य दृष्टिकोण से देखें, तो इसे समझना सरल हो जाता है।
सांख्य मतानुसार किसी वस्तु की सत्ता तब तक संभव नहीं है, जब तक हमारे मन के
एक अंश से उसके उपकरणों का निर्माण नहीं होता। मुझे इस मेज़ के वास्तविक रूप
का ज्ञान नहीं होता। इसकी एक झलक मेरी आँखों पर, उससे होकर इंद्रिय पर और फिर
मन पर पड़ती है और मन प्रतिक्रिया करता है और जो कुछ प्रतिक्रिया होती है, उसे
मैं मेज़ कहता हूँ। ठीक यही बात झील में पत्थर फेंकने में है। झील पत्थर की ओर
एक लहर फेंकती है और इस लहर को ही हम जानते हैं। जो कुछ बाह्य है, उसे कोई
नहीं जानता। जब हम उसे जानने की चेष्टा करते हैं, तब वह वही वस्तु बन जाता है,
जो हम उसे प्रदान करते हैं। मैंने स्वयं अपने मन द्वारा ही अपनी आँखों के लिए
उपकरण जुटा लिये हैं। बाहर कुछ वस्तु है, परंतु वह केवल अवसर है, संकेत मात्र
है। मैं उस संकेत के प्रति अपने मन का प्रक्षेपण करता हूँ और वह मन उसी वस्तु
का रूप ले लेता है, जो मैं देखता हूँ। हम सब लोग एक ही वस्तु कैसे देखते हैं ?
क्योंकि हम लोगों के पास ब्रह्मांड के मन के अनुरूप अंश हैं। जिनके एक जैसे मन
हैं, वे वस्तुओं को एक जैसी देखते हैं और जिनके मन एक जैसे नहीं हैं, वे
वस्तुओं को एक जैसी नहीं देखते।
सांख्य दर्शन का एक अध्ययन
सांख्य दार्शनिकों ने प्रकृति को अन्यक्त कहा है और उसकी परिभाषा उसके अंतर्गत
समस्त उपादानों की साम्यावस्था के रूप में की है। इससे स्वभावतः यह निष्कर्ष
निकलता है कि पूर्ण साम्यावस्था में किसी प्रकार की गति नहीं हो सकती। आद्य
अवस्था में, किसी अभिव्यक्ति के पूर्व जबकि कोई गति नहीं थी, अपितु पूर्ण
साम्यावस्था थी, यह प्रकृति अविनाशी थी, क्योंकि विघटन अथवा विनाश अस्थिरता
अथवा परिवर्तन से ही होता है। सांख्य का यह भी मत है कि परमाणु आदिम अवस्था के
रूप नहीं है। इस जगत् की उत्पत्ति परमाणुओं से नहीं होती : वे दूसरी या तीसरी
अवस्था हो सकते हैं। संभव है कि आद्यतन पदार्थ परमाणुओं का रूप धारण कर
स्थूलतर होता हुआ विशालतर वस्तुओं में परिणत हो जाता है। जहाँ तक आधुनिक
अनुसंधानों का संबंध है, वे यथार्थतः इसी निष्कर्ष का संकेत करते हैं।
उदाहरणार्थ आकाश (ether) के संबंध में आधुनिक सिद्धांत को लें। यदि तुम कहो कि
आकाश या ईथर आणविक है, तो कोई बात हल नहीं होती। इस बात को और स्पष्ट करने के
लिए मान लो कि वायु परमाणुओं से निर्मित है। हम जानते हैं कि आकाश सर्वत्र,
ओतप्रोत और सर्वव्यापी है और वायु के ये परमाणु मानो आकाश में संतरण कर रहे
है। यदि आकाश भी परमाणुओं का बना हुआ है, तो आकाश के प्रत्येक दो परमाणुओं के
बीच देश (रिक्त स्थान) होगा। इन रिक्त स्थानों की कौन पूर्ति करता है ? यदि
तुम यह मान लो कि कोई अन्य सूक्ष्मतर आकाश है, जो यह कार्य करता है, तो उस
सूक्ष्मतर आकाश के परमाणुओं के बीच रिक्त स्थान होंगे, जिनकी पूर्ति होनी
चाहिए। इस प्रकार सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम आकाश की कल्पना करते करते हम किसी
अंतिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकेंगे। इसी को सांख्य दार्शनिक अनवस्था दोष
कहते हैं। अतएव परमाणुवाद चरम सिद्धांत नहीं हो सकता। सांख्य के अनुसार
प्रकृति सर्वव्यापी है। वह एक सर्वव्यापी जड़-राशिस्वरूप है, जिसमें इस जगत्
की समस्त वस्तुओं के कारण विद्यमान हैं। कारण का क्या तात्पर्य है ? कारण
व्यक्त अवस्था की सूक्ष्म दशा है--उस वस्तु की अनभिव्यक्त अवस्था, जो
अभिव्यक्ति प्राप्त करती है। विनाश का तुम क्या अर्थ लगाते हो? कारण में
प्रत्यावर्तन का नाम विनाश है। यदि तुम्हारे पास मिट्टी का कोई बरतन है और तुम
उस पर आघात करो, तो वह विनष्ट हो जाएगा। इसका तात्पर्य यह है कि कार्य का उसके
मूल स्वरूप में प्रत्यावर्तन हो जाता है, जिन उपादानों से बरतन बना था, वे
अपने मूल रूप में लौट जाते हैं। विनाश का इस भाव से परे यदि कोई अन्य भाव,
उन्मूलन आदि का लिया जाता है, तो वह स्पष्टतः असंगत है। आधुनिक भौतिक विज्ञान
के अनुसार यह, जिसे कपिल ने युगों पूर्व कहा था, प्रदर्शित किया जा सकता है कि
समस्त विनाश कारण में प्रत्यावर्तन मात्र हैं। विनाश का तात्पर्य सूक्ष्मतर
अवस्था में प्रत्यावर्तन ही है, और कुछ नहीं। तुम जानते हो कि एक प्रयोगशाला
में यह कैसे प्रदर्शित किया जा सकता है कि भौतिक पदार्थ अविनाशी है। हमारे
ज्ञान की वर्तमान स्थिति में यदि कोई मनुष्य यह कहता है कि भौतिक पदार्थ अथवा
इस आत्मा का उन्मूलन हो जाता है, तो वह अपने को मात्र हास्यास्पद बनाता है।
केवल अशिक्षित, मूर्ख लोग ही ऐसी प्रस्थापना प्रस्तुत कर सकते हैं। यह विचित्र
बात है कि आधुनिक ज्ञान का पुराने दार्शनिकों की शिक्षा से साम्य है। ऐसा ही
होना चाहिए, सत्यता का यही प्रमाण है। मन को आधार मानकर वे अपने अनुसंधान में
अग्रसर हुए, उन्होंने इस विश्व के मानसिक अंश का विश्लेषण किया और कतिपय
निष्कर्षों पर पहुँचे, जिन्हें हम भी भौतिक अंश का विश्लेषण करके प्राप्त
करेंगे; क्योंकि उन दोनों का एक ही केंद्र की ओर जाना निश्चित है।
तुम्हें स्मरण रखना चाहिए कि ब्रह्मांड में इस प्रकृति की प्रथम अभिव्यक्ति
सांख्य के शब्दों में 'महत्' है। हम इससे बुद्धि कह सकते हैं। प्रकृति में जो
प्रथम परिवर्तन हुआ, उससे बुद्धि की उत्पत्ति हुई। मैं इसका आत्मचेतना के रूप
में अनवाद नहीं करूँगा, क्योंकि वह ग़लत होगा। चेतना इस बुद्धि का एक अंश
मात्र है। महत् सर्वव्यापी है। अवचेतन, चेतन और अतिचेतन सब इसके अंतर्गत आ
जाते हैं। अतएव इस महत् के लिए प्रयुक्त चेतना की कोई भी अवस्था पर्याप्त न
होगी। उदाहरणार्थ प्रकृति में तुम अपनी आँखों के सामने कुछ परिवर्तन होते पाते
हो, जिन्हें तुम देखते और समझते हो; किंतु कुछ और परिवर्तन होते रहते है जो
इतने सूक्ष्म होते हैं कि कोई मानव प्रत्यक्षतः उनको पकड़ नहीं सकता! वे एक ही
कारण से उद्भूत होते हैं; वही महत् इन समस्त परिवर्तनों का जनक है। महत् से
सर्वव्यापी अहं-तत्व की उत्पत्ति हुई है। ये सब द्रव्य हैं। जड-तत्व और मन में
परिमाणगत भेद के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं है। सूक्ष्म एवं स्थल स्वरूप में एक
ही पदार्थ होता है, एक दूसरे में बदल जाता है; और इसका आधुनिक शरीरविज्ञान के
निष्कर्षों से पूर्ण साम्य है। इस शिक्षा में विश्वास करने से कि मन मस्तिष्क
से पृथक नहीं है, तुम बहुत से द्वन्द्व और संघर्षों से बच जाओगे। अहंतत्व दो
रूपों में परिवर्तित हो जाता है। इसका एक रूप इंद्रियों में परिवर्तित हो जाता
है। इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं : संवेदना की इंद्रियाँ और प्रतिक्रिया
करनेवाली इंद्रियाँ। ये आँख और कान नहीं है, बल्कि इनके पृष्ठ भाग हैं,
जिन्हें मस्तिष्क-केंद्र और स्नायु-केंद्र आदि कहा जाता है। यह अहं-तत्व, यह
पदार्थ या द्रव्य परिवर्तित हो जाता है और इस पदार्थ से ये केंद्र निर्मित
होते हैं। इसी द्रव्य से अन्य प्रकारों-तन्मात्राओं, पदार्थ के सूक्ष्म कणों
का निर्माण होता है, जो प्रत्यक्ष करनेवाली हमारी इंद्रियों पर आघात करते हैं
और संवेदना उत्पन्न होती है। तुम उन्हें देख नहीं सकते, मात्र जानते हो कि वे
हैं। तन्मात्राओं से स्थूल पदार्थ--क्षिति, जल तथा उन सब वस्तुओं का, जिन्हें
हम देखते और अनुभव करते हैं, निर्माण होता है। यह मैं तुम्हारे मन में बैठाना
चाहता हूँ। इसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि पश्चिमी देशों में मन एवं पदार्थ
के विषय में विचार बहुत ही विचित्र हैं। उन प्रभावों को अपने मस्तिष्क से दूर
करना कठिन है। पाश्चात्य दर्शन में अपने बाल्यकाल में प्रशिक्षित होने से मुझे
स्वयं को बड़ी कठिनाई हुई थी। ये सब ब्रह्मांड संबंधी बातें हैं। पदार्थ के इस
सर्वव्यापी विस्तार, अखंड एक द्रव्य, अविभक्त की कल्पना करो, जो प्रत्येक
वस्तु की प्रथम अवस्था है और उसी प्रकार परिवर्तित होने लगता है, जिस प्रकार
दूध परिवर्तित होकर दही बन जाता है। इस प्रथम परिवर्तन को महत् कहा जाता है।
महत् पदार्थ स्थूलतर पदार्थ में, जिसे अहं-तत्व कहते हैं, परिवर्तित हो जाता
है। तीसरा परिवर्तन सार्वभौम संवेदक इंद्रियों तथा सार्वभौम तन्मात्राओं के
रूप में अभिव्यक्त होता है और ये अंतिम वस्तुएँ पुनः संयुक्त होकर इस स्थूल
जगत् में, जिसे हम अपनी आँख, नाक तथा कान से देखते, सूंघते और सुनते हैं,
परिणत हो जाती हैं। सांख्य के अनुसार ब्रह्मांड का यही विधान है और जो
ब्रह्मांड में है, वह अवश्य पिंड में भी होगा। किसी एक व्यक्ति को लो। उसमें
प्रथमतः अविभक्त प्रकृति का एक अंश है और उसके अंदर की यह पदार्थगत प्रकृति इस
महत् में-इस सार्वभौम बुद्धि के एक लघु कण में परिवर्तित हो जाती है, और उसमें
निहित सार्वभौम बद्धि का यह कण अहं-तत्व में, और फिर संवेदक इंद्रियों तथा
सूक्ष्म तन्मात्राओं में परिवर्तित हो जाता है, जो उसके शरीर का संयोजन एवं
निर्माण करते है। मैं चाहता हूँ कि यह बात स्पष्ट हो जाए, क्योंकि सांख्य
दर्शन समझने की यह पहली सीढ़ी है। इसे समझना तुम्हारे लिए अत्यंत आवश्यक है,
क्योंकि यह समस्त विश्व के दर्शन का आधार है। विश्व में कोई भी ऐसा दर्शन नहीं
है, जो कपिल का ऋणी न हो। पाइथागोरस भारत आये और उन्होंने इस दर्शन का अध्ययन
किया और वही ग्रीक लोगों के दार्शनिक विचारों का समारम्भ था। बाद में इससे
'अलेक्ज़ेन्ड्रियन' और उससे भी बाद में 'नॉस्टिक' दर्शन-शाखा का जन्म हुआ। यह
दो भागों में विभाजित हो गया; एक भाग यूरोप तथा अलेक्ज़ेन्ड्रिया चला गया और
दूसरा भाग भारत में ही रहा; इससे व्यास की दर्शन-पद्धति का विकास हुआ। कपिल का
सांख्य दर्शन ही विश्व का सर्वप्रथम ऐसा दर्शन है, जिसने युक्तियुक्त पद्धति
से जगत् के संबंध में विचार किया है, विश्व के प्रत्येक तत्ववादी को उनके
प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। मैं तुम्हारे मन में यह भाव उत्पन्न
करना चाहता हूँ कि दर्शन शास्त्र के पितामह के रूप में उनकी बातें सुनने के
लिए हम बाध्य है। इस अद्भुत व्यक्ति, इस अत्यंत प्राचीन दार्शनिक का श्रुति
में भी उल्लेख है : 'हे भगवान, आपने (सृष्टि के) प्रारंभ में कपिल मुनि को
उत्पन्न किया।' उनके प्रत्यक्ष-ज्ञान कितने आश्चर्यजनक थे, और यदि योगियों की
प्रत्यक्ष-बोध संबंधी असाधारण शक्ति का कोई प्रमाण चाहिए, तो ऐसे व्यक्ति उसके
प्रमाण हैं। उनके पास कोई अणुवीक्षण अथवा दूरवीक्षण यंत्र नहीं था। तथापि उनका
प्रत्यक्ष-बोध कितना उत्कृष्ट था, उनका वस्तुओं का विश्लेषण कितना पूर्ण एवं
अद्भुत् है !
इस स्थल पर मैं शापेनहॉवर तथा भारतीय दर्शन के अंतर का संकेत करूंगा।
शापेनहॉवर का कथन है कि इच्छा अथवा संकल्प सब चीज़ का कारण है। होने
(अस्तित्व) की इच्छा से ही हमारी अभिव्यक्ति होती है, किंतु हम इससे इंकार
करते हैं। इच्छा और प्रेरक-नाड़ी एकरूप हैं। जब हम कोई वस्तु देखते हैं, तो
इसमें इच्छा की कोई बात नहीं होती; जब इसकी संवेदनाएँ मस्तिष्क के पास पहुँचती
है, तब प्रतिक्रिया उपस्थित होती है, जो कहती है, 'यह करो', अथवा 'यह न करो',
अहं-तत्व की इस अवस्था को ही इच्छा कहते हैं। इच्छा का एक भी कण ऐसा नहीं है,
जो प्रतिक्रिया का प्रतिफल न हो। अतएव इच्छा के पूर्व बहुत सी बातें होती हैं।
यह इच्छा अहं-तत्व से मात्र निर्मित कोई चीज़ है, और अहं-तत्व का सजन कुछ और
ऊँची वस्तु-बुद्धि से होता है और वह (बुद्धि) भी अविभक्त प्रकृति का परिणाम
है। यह बौद्धों का विचार था कि हम जो कुछ भी देखते हैं, वह 'इच्छा' ही है। यह
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बिल्कुल गलत है; क्योंकि इच्छा केवल प्रेरक-नाड़ियों
में ही पायी जा सकती है। यदि तुम प्रेरक-नाड़ियों को निकाल दो, तो मनुष्य में
किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह जाती। जैसा कि संभवतः तुमको भली भाँति मालूम है,
यह तथ्य निम्न श्रेणी के पशुओं पर अनेक प्रयोग करने के उपरांत ज्ञात हुआ है।
हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे। मनुष्य में महत्-महान तत्व-बुद्धि संबंधी बात
को समझना बहुत आवश्यक है। यह बुद्धि भी एक वस्तु में परिवर्तित हो जाती है,
जिसे अहं-तत्व कहते हैं और बुद्धि शरीर की समस्त शक्तियों का कारण है। इसके
अंतर्गत अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन सब आ जाते हैं। ये तीन अवस्थाएँ कौन सी हैं
? अवचेतन की अवस्था हम पशुओं में पाते हैं, जिसे जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं।
इसमें प्रायः भूल नहीं होती, किंतु यह बहुत सीमित होती है। जन्मजात-प्रवृत्ति
कभी ही चूकती है।
पशु खाद्य एवं विषाक्त वनस्पति में सहज ही विभेद कर लेता है; परंतु उसकी
जन्मजात-प्रवृत्ति बहुत सीमित होती है, जैसे ही कोई नयी वस्तु आ जाती है, वह
कुछ नहीं समझ पाता। वह यंत्रवत् कार्य करता है। इसके बाद ज्ञान की उच्च अवस्था
आती है, जिसमें भूल और बहुधा ग़लतियाँ होती है, किंतु इसका क्षेत्र अपेक्षाकृत
विस्तृत है, यद्यपि यह मंद है। इसे हम तर्क या बुद्धि की संज्ञा देते हैं।
जन्मजातप्रवृत्ति से यह बहुत विस्तृत है, किंतु जन्मजात-प्रवृत्ति बुद्धि की
अपेक्षा अधिक असंदिग्ध होती है, जन्मजात-प्रवृत्ति की अपेक्षा बुद्धि में अधिक
ग़लतियाँ होने की संभावना होती है। मन की इससे भी ऊँची एक अवस्था है--अतिचेतन,
जो केवल योगियों में होती है, जिन्होंने उसका विकास किया है। यह अमोघ है और
बुद्धि की अपेक्षा इसका क्षेत्र बहुत अधिक व्यापक है। यह उच्चतम अवस्था है।
अतएव हमें स्मरण रखना चाहिए कि यह महत् ही उन सबका वास्तविक कारण है, जो कुछ
यहाँ है; यानी वह महत् जो अपने को विभिन्न प्रकार से व्यक्त करता है, जिसके
अंतर्गत अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन, तीन अवस्थाएँ हैं, जिनमें ज्ञान का वास है।
अब एक सूक्ष्म प्रश्न उठता है, जो हमेंशा पूछा जाया करता है। यदि एक पूर्ण
ईश्वर ने विश्व की सृष्टि की है, तो इसमें अपूर्णता क्यों है ? जिसे हम विश्व
कहते है, वह वही है, जो हम देखते हैं और वह है चेतना एवं विवेक का यह लघु
स्तर, जिसके परे हम बिल्कुल नहीं देखते। अब हम देखते हैं कि यह प्रश्न ही एक
असंभव प्रश्न है। यदि हम किसी बृहत् राशि के एक छोटे से भाग को लें और उसकी ओर
दृष्टिपात करें, तो वह असंगत प्रतीत होता है। यह स्वाभाविक ही है। विश्व
अपूर्ण है, क्योंकि हम उसे वैसा बना लेते है। कैसे ? बुद्धि क्या है? ज्ञान
क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, वस्तुओं की साहचर्य-प्राप्ति। तुम सड़क पर जाते
हो, एवं एक मनष्य को देखते हो, और कहते हो कि मैं जानता हूँ कि यह मनुष्य है;
क्योंकि तुमको अपने मन पर पड़े संस्कारों, चित्त पर अंकित चिह्नों का स्मरण हो
आता है। तुमने बहुत से मनुष्यों को देखा है और प्रत्येक ने तुम्हारे मन पर एक
संस्कार डाला है और तुम जैसे ही इस मनुष्य को देखते हो, इसे अपने ज्ञान-भंडार
से संबद्ध करते हो, और वहाँ पर तुमको इसी प्रकार के बहुत से चित्र दिखायी
पड़ते हैं; एवं जब तुम उन्हें देख लेते हो, तो संतुष्ट हो जाते हो और उनके साथ
इस नये चित्र को भी रख देते हो। जब कोई नया संस्कार पड़ता है और उसका तुम्हारे
मन में साहचर्य होता है, तो तुम संतुष्ट हो जाते हो। साहचर्य की इस अवस्था को
ज्ञान कहते हैं। अतएव ज्ञान पहले से विद्यमान अनुभव के कोष में किसी अनुभव को
उसी प्रकार रखता है, जिस प्रकार कबूतर दरबे में रखे जाते हैं, और इस तथ्य का
कि तुमको उस समय तक कोई ज्ञान नहीं हो सकता, जब तक कि तुम्हारे पास ज्ञान का
पहले से कोई कोष न हो, यह एक सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि तुम अनुभवविहीन हो,
जैसा कि कुछ यूरोपीय दार्शनिकों का विचार है, जैसा कि तुम्हारा मन समारंभ के
लिए एक 'अनुत्कीर्ण फलक' (tabula rasa) की भाँति है, तो तुमको कोई ज्ञान नहीं
प्राप्त हो सकता, क्योंकि ज्ञान का वस्तुतः अर्थ मन में पहले से विद्यमान
साहचर्यों द्वारा नूतन की प्रत्यभिज्ञा मात्र है। अपने पास ज्ञान का एक
भाण्डार होना चाहिए, जिससे किसी नये संस्कार को संबद्ध किया जा सके। मान लो कि
एक शिशु बिना ऐसे कोष के इस विश्व में जन्म लेता है, तो उसके लिए कभी भी कोई
ज्ञान प्राप्त करना असंभव हो जाएगा। अतएव, शिशु पहले एक ऐसी अवस्था में अवश्य
रहा होगा, जब कि उसके पास कोई ज्ञान-कोष था, इस प्रकार ज्ञान की शाश्वत रूप से
वृद्धि हो रही है। इस तर्क से मुक्ति का हमें कोई मार्ग बताओ। यह एक गणितीय
तथ्य है। पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के भी कुछ दार्शनिकों का मत है कि बिना विगत
ज्ञान-कोष के कोई ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। उन्होंने यह धारणा बनायी है कि
शिशु को जन्म से ही ज्ञान होता है। इन पाश्चात्य दार्शनिकों का कहना है कि जिन
संस्कारों के साथ शिशु विश्व में जन्म लेता है, उसके विगत जीवन के कारण नहीं
होते, अपितु उसके पूर्वजों के अनुभव के फलस्वरूप होते हैं। यह मात्र आनुवंशिक
संक्रमणवाद है। शीघ्र ही उन्हें पता चलेगा कि यह विचार बिल्कुल ग़लत है; कुछ
जर्मन दार्शनिक आनुवंशिकता संबंधी इन विचारों पर अब कठिन प्रहार कर रहा हैं।
आनुवंशिकता का सिद्धांत बहुत अच्छा है, किंतु अपूर्ण है, यह केवल शारीरिक पक्ष
पर प्रकाश डालता है। परिवेश का हम पर जो प्रभाव पड़ रहा है, उसकी तुम कैसे
व्याख्या करोगे ? अनेक कारण मिलकर एक कार्य का प्रादुर्भाव करते हैं। परिवेश
रूपांतरकारी कार्यों में से एक है। जिस प्रकार हमारा अतीत होता है; वैसा ही हम
अपना परिवेश स्वयं निर्माण कर लेते हैं और इस प्रकार हमारा वर्तमान परिवेश
हमको प्राप्त होता है। इसीलिए एक शराबी शहर की गंदी बस्तियों की ओर स्वभावतः
आकृष्ट हो जाता है।
तुम जानते हो कि ज्ञान का क्या तात्पर्य है। ज्ञान पुराने संस्कारों के साथ
किसी नवीन संस्कार को दरबे में कबूतर रखने के सदृश है-नूतन संस्कार की
प्रत्यभिज्ञा मात्र है। प्रत्यभिज्ञा का क्या अर्थ है ? किसी व्यक्ति के पास
पहल से जो संस्कार है, उनके तुल्य संस्कारों की साहचर्य-प्राप्ति प्रत्यभिज्ञा
कहलाती है। ज्ञान का और कोई दूसरा अर्थ नहीं है। यदि यह बात है कि ज्ञान का
तात्पर्य साहचर्य-प्राप्ति है, तो इसका अर्थ यह होगा कि किसी चीज़ को जानने के
लिए हमको उसके सादृश्यों के संपूर्ण अनुक्रम को देखना होगा। क्या ऐसी बात नहीं
है ? मान लो, तुम एक कंकड़ लेते हो, साहचर्य ज्ञात करने के लिए उसीके सदृश
कंकड़ के संपूर्ण अनुक्रम को तुमको देखना पड़ेगा। किंतु समग्र रूप से विश्व के
प्रत्यक्षबोध के संबंध में हम ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि कबूतर के दरबे के
सदृश हमारे मन में प्रत्यक्ष-बोध का मात्र एक ही 'आलेख' है, हमारे पास उसी
प्रकृति अथवा वर्ग का कोई अन्य प्रत्यक्ष-बोध नहीं है, हम उसकी किसी अन्य
प्रत्यक्ष-बोध से तुलना नहीं कर सकते। हम उसको उसके साहचर्यों से संबद्ध नहीं
कर सकते। हमारी चेतना से पृथक् विश्व का यह टुकड़ा हमारे लिए विस्मयकारी नूतन
पदार्थ है; क्योंकि हम इसके साहचर्यों को नहीं पा सके। अतएव हम इससे संघर्ष कर
रहे हैं और इसे भयावह, दुष्ट तथा बुरा समझते हैं; हम किसी समय इसे अच्छा भी
समझ सकते है, किंतु हमारा सदैव यह विचार रहता है कि यह अपूर्ण है। विश्व तभी
जाना जा सकता है, जब कि हम इसके साहचर्यों को पा सकें। इसकी प्रत्यभिज्ञा हमें
तभी हो सकेगी, जब हम विश्व एवं चेतना के परे चले जायेंगे और तब विश्व हमें
स्वतः व्याख्यात हो जाएगा। जब तक कि हम यह नहीं कर पाते, हमारी सारी माथापच्ची
विश्व की कभी व्याख्या नहीं कर सकती, क्योंकि ज्ञान सादृश्य की प्राप्ति है,
और यह साधारण चेतन-स्तर इसका हमें मात्र एक ही प्रत्यक्ष-बोध प्रदान करता है।
यही बात ईश्वर के प्रति हमारी भावना के संबंध में है। ईश्वर का हमको जो सब कुछ
दिखायी पड़ता है, वह अंश मात्र है, उसी प्रकार जिस प्रकार हम विश्व का केवल एक
अंश देखते हैं और शेष मानव-बोध के परे है। 'मैं सर्वव्यापक हूँ। मैं इतना महान
हूँ कि यह विश्व तक मेरा एक अंश मात्र है। यही कारण है कि ईश्वर हमें अपूर्ण
दिखायी पड़ता है, और हम उसे' समझ नहीं पाते। 'उसे' तथा विश्व को समझने का
एकमात्र उपाय यह है कि हम बद्धि एवं चेतना के परे चले जायँ। 'जब श्रुत और
श्रवण, विचार तथा चिंतन इन सबके परे जाओगे, तभी सत्य-लाभ करोगे।' 'शास्त्र की
सीमा के बाहर चले जाओ; क्योंकि वे केवल प्रकृति और तीन गुणों तक की ही शिक्षा
देते हैं। जब हम इनके परे जाते हैं, तब हमें सामंजस्य की प्राप्ति होती है,
इसके पूर्व नहीं।
सूक्ष्म ब्रह्मांड तथा बृहत् ब्रह्मांड की रचना का विधान एक ही है, और सूक्ष्म
ब्रह्मांड में हम केवल एक अंश--मध्य भाग--को ही जानते हैं। हम न अवचेतन को
जानते हैं, न अतिचेतन को। हम केवल चेतन को ही जानते हैं। यदि कोई व्यक्ति कहता
है, "मैं पापी हूँ", तो वह मिथ्या कथन करता है; क्योंकि वह अपने को नहीं
जानता। वह मनुष्यों में अत्यंत अज्ञ है; अपने विषय में वह अंश मात्र जानता है;
क्योंकि वह जिस भूमि पर है, उसका ज्ञान उसके केवल एक भाग को स्पर्श करता है।
यही बात इस विश्व के संबंध में है, बुद्धि द्वारा इसके केवल एक अंश को जानना
संभव है, संपूर्ण को नहीं; क्योंकि विश्व का निर्माण अवचेतन, चेतन, अतिचेतन,
व्यक्तिगत महत्, सार्वभौम महत् तथा परवर्ती परिणामों से होता है।
प्रकृति परिवर्तित क्यों होती है ? अब तक हमने देखा कि प्रत्येक वस्तु, समस्त
प्रकृति जड़, अचेतन है। यह सब यौगिक एवं अचेतन है। जहाँ भी नियम है, यह सिद्ध
है कि उसका कार्यक्षेत्र अचेतन है। मन, बुद्धि, इच्छा और अन्य सभी अचेतन है।
किंतु ये सब किसी चेतना का, किसी ऐसे सत् पदार्थ के चित् का प्रतिबिंबन कर रहे
हैं, जो इन सबसे परे है, जिसे सांख्य दार्शनिक 'पुरुष' संज्ञा से संबोधित करते
हैं। पुरुष विश्व के संपूर्ण परिवर्तनों का साक्षिस्वरूप कारण है। इसका
अभिप्राय है कि सार्वभौमिक अर्थ में पुरुष को ग्रहण करने पर वह विश्व का प्रभु
है। यह कहा जाता है कि ईश्वर की इच्छा ने विश्व की सृष्टि की। सामान्य भाषा
में ऐसा कहना ठीक है, परंतु हम देखते हैं कि यह बात सत्य नहीं है। इच्छा कारण
कैसे बन सकती है? प्रकृति में इच्छा तीसरी या चौथी अभिव्यक्ति है। बहुत से
तत्त्वों का अस्तित्व इसके पूर्व है, उनका सर्जन किसने किया ? इच्छा एक यौगिक
तत्व है, और प्रत्येक यौगिक पदार्थ की उत्पत्ति प्रकृति से होती है। अतएव
इच्छा प्रकृति की सृष्टि नहीं कर सकती। अतः यह कहना कि ईश्वर की इच्छा से
विश्व की सृष्टि हुई, अर्थहीन है। हमारी इच्छा अहंज्ञान के किंचित् अंश को
आच्छादित करती है, और हमारे मस्तिष्क को परिचालित करती है। इच्छा वह तत्व नहीं
है, जिससे हमारा शरीर या विश्व परिचालित हो रहा है। हमारा शरीर जिस शक्ति
द्वारा गतिशील होता है, इच्छा उसकी आंशिक अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार विश्व में
इच्छा का अस्तित्व है; किंतु वह विश्व का एक अंश मात्र है। संपूर्ण विश्व
इच्छा द्वारा नहीं संचालित हो रहा है, यही कारण है हम इसकी व्याख्या
'इच्छासिद्धांत' द्वारा नहीं कर सकते। मान लो कि मैं यह सही मानता हूँ कि
इच्छाशक्ति ही शरीर का परिचालन कर रही है, लेकिन जब मैं यह पाता हूँ कि यह
मेरी इच्छानुसार कार्य नहीं करता, तो मुझे झुंझलाहट होती है। इसी प्रकार जब
मैं यह मानता हूँ कि विश्व का नियमन इच्छा-शक्ति ही कर रही है और कुछ ऐसी
वस्तुओं को पाता हूँ, जो इसका अनुगमन नहीं करती हैं, तो इसमें मेरा ही दोष है।
अतएव पुरुष इच्छा नहीं है, और न तो यह बुद्धि ही हो सकता है; क्योंकि स्वयं
बुद्धि भी एक यौगिक पदार्थ है। मस्तिष्क के समानांतर किसी जड़ पदार्थ के
अस्तित्व के बिना बुद्धि का कोई अस्तित्व संभव नहीं है। जहाँ कहीं भी बुद्धि
है, वहाँ मस्तिष्क के सदृश कोई पदार्थ अवश्य ही होगा, जो एक विशिष्ट रूप में
गठित होकर मस्तिष्क का कार्य करता है। किंतु स्वयं बुद्धि एक यौगिक तत्व है।
तो फिर यह पुरुष क्या है ? यह न तो बुद्धि है और न इच्छा ही, बल्कि यह इन सबका
कारण है। उसके ही सान्निध्य में इनमें क्रिया उत्पन्न होती है एवं इन सबका
परस्पर संयोग होता है। यह प्रकृति से अनासक्त रहता है; यह बुद्धि या महत्
नहीं, बल्कि आत्मा-निर्गुण पुरुष है। 'मैं साक्षी हूँ, और मेरे साक्षिस्वरूप
होने के कारण ही प्रकृति जड़, चेतन सबको उत्पन्न कर रही है।
प्रकृति में चेतनता कहाँ से आयी? हम पाते हैं कि यह चेतनता बुद्धि है, जिसे
चित् कहा जाता है। चेतनत्व का आधार पुरुष है, पुरुष का यह स्वभाव है। यह वह
तत्व है, जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, लेकिन जिसे हम ज्ञान कहते हैं, उसका
वह कारण है। पुरुष अहंकार नहीं है, क्योंकि अहंकार यौगिक है, किंतु अहंकार में
जो कुछ भी शुभ या प्रकाशस्वरूप है, वह पुरुष का अंश है। पुरुष बुद्धि नहीं है,
लेकिन बुद्धि में जितना भी प्रकाश है, वह उसे पुरुष से ही ग्रहण करती है।
पुरुष में चेतनता तो है, किंतु पुरुष न तो बुद्धिमान ही है, न ज्ञानवान ही।
अपने चारों ओर हम जो कुछ देख रहे हैं, वह प्रकृति एवं पुरुष में निहित चित् का
मिश्रण है। विश्व में जो भी सुख, आनंद एवं प्रकाश है, वह पुरुष का ही है। यह
सब कुछ यौगिक है, क्योंकि यह प्रकृति एवं पुरुष का मिश्रण है। 'जहाँ भी कोई
सूख है, जहाँ भी कोई आनंद है, वहाँ उस अमृत-तत्व की ही चिनगारी है, जिसे ईश्वर
कहते हैं। 'पुरुष ही विश्व का आकर्षण-केंद्र है; यद्यपि यह उससे असंस्पृष्ट
एवं अनासक्त है, तथापि यह समग्र विश्व को आकृष्ट करता है। मनुष्य को स्वर्ण के
पीछे दौड़ लगाते देखा जाता है, क्योंकि इसके पीछे पुरुष की चिनगारी है, यद्यपि
अधिक मात्रा में यह मल से युक्त है। जब कोई मनुष्य अपने बच्चों से प्यार करता
है, या कोई स्त्री अपने पति से प्यार करती है, तो उनको आकृष्ट करनेवाली कौन सी
शक्ति होती है ? वह उनके पीछे पुरुष का एक स्फुलिंग ही है। यह वहाँ विद्यमान
है, केवल वह 'मल' से आवेष्टित है। इसके सिवा कोई आकृष्ट नहीं कर सकता है। 'इस
जड़ संसार में केवल पुरुष ही चैतन्य है।' यही सांख्य का पुरुष है। इस धारणा के
अनुसार, पुरुष अवश्य ही सर्वव्यापी होगा। जो सर्वव्यापी नहीं है, वह निश्चित
रूप से ससीम होगा। सभी सीमाएँ कारणोत्पन्न हैं; जो कार्यस्वरूप है, उनका आदि
और अंत है। यदि पुरुष ससीम है, तो यह विनाश को प्राप्त होगा, मुक्त नहीं होगा,
चरम तत्व नहीं हो पायेगा, बल्कि यह भी कारणोत्पन्न हो जाएगा। अतएव यह
सर्वव्यापी है। कपिल के अनुसार पुरुष बहुसंख्यक हैं; एक नहीं, बल्कि
अनंतसंख्यक। मुझमें और तुममें एक एक पुरुष है, और इसी प्रकार सबमें अलग अलग
पुरुष का निवास है; एक अनंत वृत्तों की परंपरा, जो प्रत्येक अपने अपने में
अनंत है, विश्व में गतिमान है। पुरुष न तो जड़ है और न तो मन ही, इसके द्वारा
प्रेषित प्रतिबिंब को ही हम जान पाते हैं। जब यह सर्वव्यापी है, तो यह निश्चित
रूप से जन्म एवं मृत्यु से परे है। प्रकृति इस पर अपनी प्रतिच्छायाजन्म एवं
मृत्यु की प्रतिच्छाया-प्रक्षिप्त करती है; परंतु यह पुरुष स्वभावतः शुद्ध है।
यहाँ तक हम सांख्य दर्शन को अपूर्व पाते हैं।
अब हम इसके विरुद्ध दी गयी युक्तियों पर विचार करेंगे। यहाँ तक व्याख्या पूर्ण
है, एवं मनोविज्ञान विवादरहित। संवेदना का इंद्रियों एवं संवेदनावाहक यंत्रों
में विभक्त हो जाना इस बात का प्रमाण है कि वे अयौगिक नहीं, बल्कि यौगिक है।
'अहं' को इंद्रिय एवं जड़, इन दो भागों में विभक्त कर हम इस तथ्य पर पहुँचते
हैं कि यह भी जड़ पदार्थ है और महत् भी जड़ पदार्थ की एक अवस्था है। इस प्रकार
अंत में हम 'पुरुष' की उपलब्धि करते हैं। यहाँ तक इस सिद्धांत से कोई विरोध
नहीं। लेकिन यदि हम सांख्यवादियों से यह प्रश्न करें, "प्रकृति की सृष्टि
किसने की?" तो उनका उत्तर होगा कि पुरुष एवं प्रकृति अनादि एवं सर्वव्यापी है,
और पुरुष की संख्या अनंत है। हमें इन वाक्यों का विरोध करना है और एक श्रेष्ठ
समाधान की उपलब्धि करनी है। इस रास्ते से हम अद्वैत मत की उपलब्धि करेंगे।
हमारा प्रथम प्रतिवाद है, ये दो अनंत तत्व कैसे रह सकते हैं ? और फिर हम यह
युक्ति देंगे कि सांख्य एक सर्वांगपूर्ण सामान्यीकरण नहीं है, और इसमें हमें
कोई समाधान नहीं प्राप्त होता है। पुनः हम देखेंगे कि वेदांती किस प्रकार इन
कठिनाइयों को पार करते हैं और एक सर्वांगीण समाधान को प्राप्त करते हैं; तथापि
सांख्य को ही समस्त गौरव प्राप्त है। जब एक प्रासाद का निर्माण हो जाता है तो
उसका अंतिम सौंदर्य-प्रसाधन आसान हो जाता है।
सांख्य एवं वेदांत
हम जिस सांख्य दर्शन पर विचार कर रहे थे, उसकी मोटी बातों का उल्लेख संक्षेप
में यहाँ करेंगे। इस व्याख्यान में हम सांख्य दर्शन के दोष क्या हैं; और
वेदांत ने आकर किस प्रकार इन कमियों की पूर्ति की, यह दिखलाना चाहते हैं।
तुमको स्मरण होगा, सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति ही विचार, बुद्धि, तर्क,
राग, द्वेष, स्पर्श, रस और भूत द्रव्य, इन सब अभिव्यक्तियों का कारण है। सभी
प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं। वह प्रकृति सत्त्व, रज और तम नामक तीन प्रकार के
उपादानों से गठित है। ये तीनों गुण नहीं हैं, जगत् के उपादान हैं, जिनसे समग्र
विश्व विकसित हुआ है। कल्प के प्रारंभ में ये साम्यावस्था में रहते हैं।
सृष्टि का आरंभ होने पर ही ये उपादान परस्पर अनंत प्रकार से संयुक्त होकर इस
ब्रह्मांड की सृष्टि करते हैं। इसका प्रथम विकास महत् (अर्थात् सर्वव्यापी
बुद्धि) है और उससे अहंकार की उत्पत्ति होती है। अहंकार को सांख्य एक तत्व
मानता है, उससे मन अथवा सर्वव्यापी मनस्तत्त्व का उद्भव होता है। इस अहंकार से
ही ज्ञान और कर्म के इंद्रिय तथा तन्मात्रा अर्थात् शब्द, स्पर्श, रस आदि के
सूक्ष्म परमाणुओं की उत्पत्ति होती है। इस अहंकार से ही सब सूक्ष्म परमाणुओं
का उद्भव, और इन सूक्ष्म परमाणुओं से ही स्थूल परमाणुओं की उत्पत्ति होती है,
जिसे हम जड़-तत्व कहते हैं। तन्मात्राओं का प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता,
किंतु जब वे स्थूल परमाणु बन जाती है, तब हम उन्हें अनुभव और इंद्रियगोचर कर
सकते हैं।
बुद्धि, अहंकार और मन, इन तीन माध्यमों से कार्य करनेवाला चित्त, प्राण नामक
शक्तियों की सृष्टि करके उन्हें परिचालित कर रहा है। यह प्राण ही केवल
श्वास-प्रश्वास है, तुमको यह धारणा यहीं त्याग देनी उचित्त है।
श्वास-प्रश्वास, प्राण का एक कार्य मात्र है। किंतु यहाँ प्राण शब्द से उन
नाड़ी-शक्तियों का बोध होता है, जो समस्त देह का शासन और परिचालन करती है एवं
विचार तथा देह की विविध क्रियाओं के रूप में भी प्रकाशित हो रही है।
श्वास-प्रश्वास की गति इस प्राणसमूह का प्रधान और प्रत्यक्षतम रूप है। प्राण
ही वायु पर कार्य कर रहा है, वायु प्राण के ऊपर नहीं। श्वास-प्रश्वास की गति
के नियमन को ही प्राणायाम कहते हैं। इस गति पर अधिकार प्राप्त करने के लिए ही
प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है; केवल श्वास-प्रश्वास का नियमन अथवा फेफड़ों
को सबल बनाना ही इसका उद्देश्य नहीं है। यह सिद्धांत है, देलसार्ट का,
प्राणायाम का नहीं। ये प्राण ही जीवन-शक्ति हैं, जो समस्त शरीर पर कार्य कर
रहे हैं, और वे मन तथा अन्य शारीरिक अवयवों द्वारा परिचालित होते हैं। यहाँ तक
ठीक है। मनोविज्ञान बहुत स्पष्ट और असंदिग्ध है, और साथ ही वह संसार की
प्राचीनतम बुद्धिसंगत विचारधारा है। पाइथागोरस ने उसे भारत में अवगत कर उसकी
शिक्षा यूनान में दी। आगे चलकर प्लेटो को उसकी झलक मिली, और भी आगे चलकर
ज्ञानवादी नॉस्टिक्स (Gnostics) उसे सिकंदरिया ले गए, और वहाँ से यह विचारधारा
यूरोप पहुँची। अतएव दर्शन और मनोविज्ञान के क्षेत्र में जहाँ कोई प्रयत्न होता
है, तो उसके पिता के रूप में यही कपिल नामक व्यक्ति सिद्ध होते हैं। यहाँ तक
हमने देखा कि यह मनोविज्ञान अत्यंत अपूर्व है, किंतु अब आगे बढ़ने पर हमें
किसी किसी विषय में इससे भिन्न मत का अवलंबन करना होगा। कपिल का प्रधान मत
है--परिणाम। वे कहते हैं कि हर वस्तु किसी दूसरी वस्तु का परिणाम अथवा विकार
है; क्योंकि उनके मत के अनुसार कार्य-कारण-भाव का लक्षण यह है कि कार्य अन्य
रूप में परिणत कारण मात्र है, क्योंकि हम जहाँ तक देख पाते हैं, समग्र जगत्
विकारशील और प्रगतिशील है। हम मिट्टी को देखते हैं, अन्य रूप में हम इसे घड़ा
कहते हैं। मिट्टी है कारण, घड़ा है कार्य। इससे अधिक कारणता की कोई धारणा नहीं
की जा सकती। यह समग्र ब्रह्मांड निश्चित रूप से एक उपादान से अर्थात् प्रकृति
के परिणाम से उत्पन्न हुआ है। अतएव यह विश्व अपने कारण से स्वरूपतः कभी भिन्न
हो नहीं सकता। कपिल के अनुसार अव्यक्त प्रकृति से चित्त और बुद्धि तक कोई भी
वस्तु पुरुष अर्थात् भोक्ता अथवा प्रशासक नहीं है। मिट्टी का एक ढेला जैसा
होता है, वैसा ही मन का पुंज भी। स्वरूपतः मन में चैतन्य नहीं है, किंतु हम
देखते हैं कि वह तर्कना करता है। अतएव उसके परे, निश्चित रूप से ऐसी कोई सत्ता
होनी चाहिए, जिसका आलोक महत्, अहंज्ञान और अन्य परवर्ती परिणामों में व्याप्त
है। इस सत्ता को कपिल पुरुष कहते हैं, वेदांती उसे आत्मा कहते हैं। कपिल के
अनुसार पुरुष अमिश्र पदार्थ है-वह यौगिक पदार्थ नहीं, वही एकमात्र अभौतिक
पदार्थ है, और सब प्रपञ्च विकार जड़ हैं। मान लो, हम एक श्यामपट देख रहे हैं।
पहले बाहर के सब यंत्र मस्तिष्क-केंद्र में (कपिल के मत से इंद्रिय में) उस
संवेदन को ले आयेंगे; वह फिर उस केंद्र से मन में जाकर उस पर आघात करेगा; मन
फिर उसे बुद्धि को समर्पित करेगा। किंतु बुद्धि स्वतः कार्यशील नहीं है--उसकी
पृष्ठभूमि में जो पुरुष विद्यमान है, उसीसे मानो कार्यशीलता आती है। यह सब
मानो उसके भृत्य हैं; संवेदन को उसके समीप ला देते हैं, और तब वह मानो आदेश
देता है और प्रतिक्रिया करता है। पुरुष ही भोक्ता, बोद्धा, यथार्थ सत्ता,
सिंहासन पर बैठा हुआ राजा, मनुष्य की आत्मा है, और वह अभौतिक है। जिस कारण वह
अभौतिक है, उसी कारण से वह अवश्य ही असीम है, उसकी कोई सीमा नहीं हो सकती। इन
पुरुषों में प्रत्येक ही सर्वव्यापी है; हम सब सर्वव्यापी है, किंतु हम लिंग
शरीर के माध्यम से ही कार्य कर सकते हैं। मन, अहंज्ञान, मस्तिष्क-केंद्र अथवा
इंद्रिय और प्राण, इन सबके संयोग से सूक्ष्म शरीर अथवा कोष बनता है, जिसे ईसाई
दर्शन में मानव की 'आध्यात्मिक देह' कहते हैं। इस देह को ही उद्धार अथवा दंड
प्राप्त होता है, यही विभिन्न स्वर्गों में जाती रहती है, इसका ही बार-बार
जन्म और पुनर्जन्म होता है; क्योंकि हम पहले से ही देखते आये हैं कि पुरुष
अथवा आत्मा के लिए आवागमन असंभव है। गति का अर्थ है आना-जाना, और जो एक स्थान
से दूसरे स्थान में जाता है, वह कदापि सर्वव्यापी नहीं हो सकता। यहाँ तक हमने
कपिल के दर्शन में देखा है कि आत्मा अनंत है और एकमात्र वही प्रकृति का परिणाम
नहीं है। एकमात्र वही प्रकृति के बाहर है, किंतु वह प्रकृति में बद्ध होकर
विद्यमान है, ऐसी प्रतीति मात्र हो रही है। प्रकृति ने पुरुष को घेर लिया है
और पुरुष ने अपने को प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लिया है। पुरुष सोचते हैं,
'हम लिंग शरीर हैं', 'हम स्थूल शरीर हैं', इसीलिए वे सुख-दुःख भोग रहे हैं;
किंतु वास्तव में सुख-दुःख पुरुष का नहीं है, वह लिंग शरीर अथवा सूक्ष्म शरीर
का है।
योगी समाधि अवस्था को सर्वोच्च अवस्था मानता है। वह न सक्रिय है, न निष्क्रिय
और उसमें हम पुरुष के निकटतम पहुँच जाते हैं। पुरुष में सुख-दुःख कुछ नहीं है,
वह सभी पदार्थ, सभी कर्मों का शाश्वत साक्षी है, किसी कार्य का फल वह ग्रहण
नहीं करता। जैसे सूर्य सभी नेत्रों की दृष्टि का कारण है, किंतु नेत्र के किसी
दोष से अस्पृष्टरहता, अथवा जैसे लाल या नीले फूल स्फटिक के सामने रख दिए जाने
पर वह लाल या नीला प्रतीत होने लगता है; किंतु वह ऐसा होता नहीं, इसी प्रकार
पुरुष सक्रिय-निष्क्रिय प्रतीत होता है, वह है इन दोनों के परे। (साख्यसूत्र)
पुरुष की इस अवस्था को समाधि कहकर व्यक्त किया जा सकता है। यही सांख्य दर्शन
है।
इसके पश्चात् सांख्यवादी यह भी कहते हैं कि प्रकृति के ये सब विकार आत्मा के
लिए हैं; विभिन्न उपादानों के समस्त संघात उससे स्वतंत्र और किसी अन्य व्यक्ति
के लिए हैं। ये नाना प्रकार के संघात, जिसे हम प्रकृति अथवा जगत्प्रपञ्च कहते
हैं, ये सब सतत परिवर्तन, आत्मा के भोग, अपवर्ग अथवा मुक्ति के लिए क्रम से
चले आ रहे हैं। जिससे आत्मा निम्नतम अवस्था से सर्वोत्तम अवस्था तक का अनुभव
प्राप्त कर सके। जब आत्मा यह अनुभव प्राप्त करती है, तब वह समझ सकती है कि वह
किसी काल में भी प्रकृतिबद्ध नहीं थी; वह सर्वदा ही उससे पूर्ण रूप से
स्वतंत्र थी--वह अविनाशी है, उसका आना-जाना कुछ भी नहीं है। स्वर्ग में जाना,
फिर यहाँ आकर उत्पन्न होना-सभी प्रकृति का है--आत्मा का नहीं है। तब आत्मा
मुक्त हो जाती है। इसी प्रकार समस्त प्रकृति आत्मा का भोग अथवा अनुभव का सञ्चय
करने के लिए काम करती जा रही है। आत्मा उसी चरम लक्ष्य में, जो मुक्ति है,
जाने के लिए यह अनुभव प्राप्त कर रही है। सांख्य दर्शन के अनुसार इस आत्मा की
संख्या अनेक है। अनंतसंख्यक आत्माएँ विद्यमान हैं। कपिल का और एक सिद्धांत यह
है कि जगत् के सृष्टिकर्ता के रूप में कोई ईश्वर नहीं है। प्रकृति ही इन सब
विभिन्न रूपों का सर्जन करने में समर्थ है। सांख्यवादी कहते हैं, ईश्वर को
स्वीकार करने से कोई प्रयोजन नहीं सधता है।
वेदांत कहता है, आत्मा स्वरूपतः परम सत्, परम चित् और परम आनंद है; किंतु ये
आत्मा के लक्षण नहीं हैं; वे तीन नहीं, एक हैं--आत्मा का सार-तत्व। तथापि
वेदांत सांख्य के साथ इस विषय में एकमत है कि बुद्धि भी, जहाँ तक वह प्रकृति
से उत्पन्न है, प्रकृति की ही एक वस्तु है। वेदांत यह भी सिद्ध करता है कि
बुद्धि एक यौगिक वस्तु है। दृष्टांतस्वरूप हम किसी विषय के प्रत्यक्षीकरण पर
विचार करें। मैं एक श्यामपट देखता हूँ। यह ज्ञान कैसे आता है? श्यामपट का वह
जिसे जर्मन दार्शनिक वस्तुस्वरूप (Thing-in-itself) कहते हैं, अज्ञात है; मैं
उसे कभी नहीं जान सकता। मान लो, वह 'क' है। श्यामपट का यह 'क' हमारे चित्त के
ऊपर कार्य कर रहा है और चित्त प्रतिक्रिया कर रहा है। चित्त एक सरोवर के समान
है। सरोवर में एक पत्थर फेंकने पर सरोवर की प्रतिक्रियास्वरूप एक तरंग पत्थर
की ओर आयेगी। यह तरंग उस पत्थर के समान ज़रा भी नहीं होती-वह एक तरंग है।
श्यामपटीय 'क' ही पत्थर के रूप में मन पर आघात कर रहा है, तथा मन उसकी दिशा
में एक तरंग फेंक रहा है। इसी तरंग को हम श्यामपट की संज्ञा देते हैं। हम
तुमको देख रहे हैं। तुम स्वरूपतः जो हो, वह अज्ञात और अज्ञेय है। तुम वही
अज्ञात सत्ता क हो-तुम हमारे मन पर कार्य कर रहे हो; और मन आघात प्राप्त होने
की दिशा में एक तरंग निक्षेप करता है, तथा उस तरंग को ही हम श्री अथवा श्रीमती
अमुक कहा करते हैं। इस प्रत्यक्ष क्रिया के दो उपादान हैं--एक भीतर से तथा
दूसरा बाहर से आने वाला, तथा इन दोनों का ही मिश्रण, 'क'+ मन हमारा बाह्य जगत्
है। संपूर्ण ज्ञान प्रतिक्रिया का फल है। ह्वेल मछली के संबंध में गणना के
द्वारा स्थिर किया गया है कि पूंछ में आघात होने के कितने क्षणों के बाद उसका
मन पूँछ पर प्रतिक्रिया करता है और वह पीड़ा का अनुभव करती है। यही बात आंतरिक
प्रत्यक्ष के संबंध में सत्य है, यथार्थ आत्मा अथवा हम, जो हमारे भीतर
विद्यमान है, वह भी अज्ञात और अज्ञेय है। उसे 'ख' कहा जाए। जब हम अपने को अमुक
व्यक्तिविशेष के रूप में जानते हैं, तब वह 'ख'+ मन होता है। यह 'ख' मन पर आघात
करता है। अतः हमारा समग्र जगत् 'क'+ मन (बाह्य जगत्) और 'ख'+मन (अंतर्जगत् )
है। 'क' और 'ख' बाह्य और अंतर्जगत् के पश्चात् 'वस्तुस्वरूप' के रूप में माने
जा सकते हैं।
वेदांत के अनुसार चेतना के तीन मूलभूत तथ्य है: मैं सत् हूँ, मैं चित् हूँ, और
में आनंदस्वरूप हूँ। यह भाव, जो कभी कभी आता है, कि मुझे कोई अभाव नहीं है।
मैं विश्रामपूर्ण, शांतिपूर्ण हूँ, मुझे कोई भी विचलित नहीं कर सकता, हमारे
अस्तित्व का केंद्रीय तथ्य, हमारे जीवन का आधारभूत तत्व है; और जब यह सीमित बन
जाता है एवं यौगिक बन जाता है, यह जागतिक अस्तित्व, जागतिक ज्ञान और प्रेम के
रूप में अभिव्यक्त होता है। प्रत्येक मनुष्य का अस्तित्व है, प्रत्येक मनुष्य
अवश्य जानता है, और प्रत्येक मनुष्य प्रेम के निमित्त पागल है। मनुष्य प्रेम
किए बिना नहीं रह सकता। उच्चतम और निम्नतम सब प्रकार के माध्यम से सब लोग
अवश्य प्रेम करते हैं। 'ख' अथवा अंतः 'वस्तुस्वरूप' मन के साथ संबद्ध होकर
सत्, ज्ञान और प्रेम का निर्माण करता है, जो वेदांतियों द्वारा पूर्ण सत्,
पूर्ण चित्, पूर्ण आनंद कहे जाते हैं। यथार्थ सत् असीम, अमिश्रित, असंहत,
अविकारी, मुक्तात्मा है; जब वह मिश्रित या संहत होता है, मन के साथ घुल-मिल
जाता है, इसे व्यष्टि-सत्ता, जीवात्मा नाम से पुकारा जाता है। यही
उद्भिद्-जीवन, प्राणी-जीवन, मनुष्य-जीवन है--जैसे सर्वव्यापी देश एक कमरे या
एक घट, या अन्य किसी वस्तु के भीतर खंडित हो जाता है। और वह सत्य ज्ञान वह
नहीं है, जिसे हम जानते हैं कि वह यथार्थ ज्ञान है, न वह अतींद्रिय ज्ञान है,
न बुद्धि, न जन्मजात-प्रवृत्ति ही है। जब वह भ्रष्ट और अव्यवस्थित होता है, हम
उसे अतींद्रिय ज्ञान कहते हैं। जब अधिक भ्रष्ट होता है, हम उसे बुद्धि कहते
हैं, और जब उससे अधिक भ्रष्ट होता है, हम उसे जन्मजात-मूलप्रवृत्तिज-ज्ञान
कहते है। ज्ञान स्वरूपतः विज्ञान है-न अतींद्रिय ज्ञान, न बुद्धि, न
जन्मजात-प्रवृत्ति। उसकी निकटतम अभिव्यंजना है सर्वज्ञत्व। इसमें कोई सीमा
नहीं है, कोई संघात नहीं है। यह परमानंद जब मलिन हो जाता है, तब हम इसे स्थूल
या सूक्ष्म विषयों अथवा विचारों के प्रति प्रेम या आकर्षण कहते हैं। यह
परमानंद की ही विकृत अभिव्यक्ति है। पूर्ण सत्, पूर्ण चित्, पूर्ण आनंद आत्मा
के गुण नहीं है, बल्कि सारतत्व हैं; आत्मा के साथ उनका कोई प्रभेद नहीं है। और
ये तीनों एक ही हैं: हम एक ही वस्तु को तीन विभिन्न पहलुओं के माध्यम से देखते
हैं। ये सब सापेक्ष ज्ञान के परे हैं। आत्मा का अनंत ज्ञान मनुष्यों के
मस्तिष्क के माध्यम से अनुश्रवित होकर, अतींद्रिय ज्ञान, बुद्धि आदि बनता है।
इसे भासमान करनेवाले माध्यम के तारतम्यानुसार इसकी अभिव्यक्ति होती है। आत्मा
के रूप में मनुष्य और निम्नतम प्राणियों में कोई अंतर नहीं, केवल शेषोक्त का
मस्तिष्क कम विकसित हुआ है और इसके माध्यम से होनेवाली अभिव्यक्ति, जिसे हम
जन्मजातप्रवृत्ति कहते हैं, अत्यंत अस्पष्ट है। मनुष्य का मस्तिष्क अधिक
सूक्ष्म होता है, इसीलिए अभिव्यक्ति भी स्पष्ट होती है और उच्चतम मानव में यह
पूर्णतया स्पष्ट है। अस्तित्व या सत् के बारे में भी यह कहा जा सकता है। सीमित
अस्तित्ववान देश, जिसे हम जानते हैं, यथार्थ अस्तित्व का, जो आत्मा का स्वरूप
है, केवल एक प्रतिबिंब है। आनंद के साथ भी यही घटित होता है। आत्मा के अनंत
परमानंद का ही वह प्रतिबिंब है, जिसे हम प्रेम या आकर्षण कहते हैं। अभिव्यक्ति
से परिच्छिन्नता आती है, लेकिन अनभिव्यक्त आत्मा का यथार्थ स्वरूप
अपरिच्छिन्न, असीम है। उस परमानंद का कोई परिच्छेद नहीं है। लेकिन प्रेम में
परिच्छिन्नता है। किसी दिन मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, और दूसरे दिन घणा। मेरा
प्रेम एक दिन बढ़ता है और दूसरे दिन घटता है; क्योंकि यह केवल एक अभिव्यक्ति
है।
पहले तो ईश्वरविषयक धारणा में कपिल के साथ हमारा विवाद है। जैसे व्यष्टि-बद्धि
से आरंभ कर व्यष्टि-शरीर तक इस प्रकृति की विकारमाला के पश्चात् उनके नियंता
और शास्तास्वरूप आत्मा को स्वीकार करने का प्रयोजन है, उसी प्रकार समष्टि में
भी-बृहत् ब्रह्मांड में भी--समष्टि-बुद्धि, समष्टि मन, समष्टि-सूक्ष्म और
स्थूल-जड़ के पश्चात् उनके नियंता और शास्ता के रूप में किसी को अवश्य स्वीकार
करना पड़ेगा। इस समष्टि-बुद्धयादि क्रम के पश्चात् एक नियंता--शास्तास्वरूप
सर्वव्यापी पुरुष को स्वीकार न करने पर यह क्रम कैसे पूर्ण होगा ? यदि तुम
समष्टि-क्रम के पश्चात् एक सर्वव्यापी पुरुष को अस्वीकार करो, तो हमें
व्यष्टि-क्रम के पश्चात् भी एक पुरुष को अस्वीकार करना पड़ेगा। अतएव यदि यह
सत्य है कि इस अभिव्यक्त व्यष्टि-क्रम के पश्चात् ऐसे पुरुष विद्यमान है, जो
समस्त प्रकृति के परे हैं, जो किसी प्रकार के जड़उपादान से निर्मित नहीं है
अर्थात् पुरुष--तो यही एक युक्ति समष्टि-ब्रह्मांड पर भी लागू होगी। जो
सर्वव्यापी आत्मा प्रकृति के समस्त विकारों के परे है, उसे प्रधान नियंता,
ईश्वर कहते हैं।
अब अधिक महत्वपूर्ण मतभेद उठता है। क्या एक से अधिक पुरुष हो सकते हैं ? हमने
देखा कि पुरुष सर्वव्यापी और असीम है। सर्वव्यापी, असीम दो नहीं हो सकते। यदि
'क' और 'ख' दो असीम वस्तुएँ हैं, तो असीम 'क' असीम 'ख' को सीमाबद्ध करेगा।
क्योंकि असीम 'क' असीम 'ख' नहीं है; तथा असीम 'ख' असीम 'क' नहीं है। अभेद में
भेद का अर्थ है, पृथक्करण और पृथक्करण का अर्थ है परिसीमन। अतः 'क' और 'ख' एक
दूसरे को 'सीमाबद्ध' करने से असीम नहीं रह सकते। इससे यह निष्कर्ष निकलता है
कि केवल एक ही असीम वस्तु--एक पुरुष विद्यमान है।
अब हम कथित 'क' एवं 'ख' की सहायता लेंगे और दिखायेंगे कि ये दोनों एक है। हमने
पहले ही देखा है कि जिसे हम बहिर्जगत् कहते हैं, वह 'क'+मन है, तथा अंतर्जगत्
'ख'+मन है। 'क' और 'ख', ये दोनों अज्ञात और अज्ञेय राशियाँ हैं। समस्त विभेद
देश, काल और निमित्त के कारण हैं। ये सब मन के गठनतत्व हैं। इनके बिना कोई
मनोवृत्ति संभव नहीं है। तुम काल का परित्याग करके कदापि विचार नहीं कर सकते,
देश को छोड़कर किसी वस्तु की धारणा नहीं कर सकते, एवं निमित्त अथवा कार्य-कारण
का संबंध छोड़कर किसी वस्तु की कल्पना नहीं कर सकते। ये सब मन के ही रूप हैं।
इन्हें हटा लो, और मन का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अतः सब विभेद का कारण है
मन। वेदांत के अनुसार मन या इसके रूपों से ही 'क' और 'ख' आपातदृष्टि से
सीमाबद्ध हुए है तथा ये अंतर्जगत् और बाह्य जगत्, इन दो रूपों में प्रतीयमान
हुए हैं। किंतु 'क' और 'ख', दोनों ही मन के परे होने के कारण भेदरहित हैं और
इसलिए एक हैं। हम उन पर किसी गुण का आरोप नहीं कर पाते, क्योंकि गुण मन के
द्वारा उत्पन्न होते हैं। जो गुणरहित है, वह अवश्य ही एक है; 'क' गुणरहित है,
यह केवल मन के ही गुणों को ग्रहण करता है, इसी प्रकार 'ख' भी; अतः ये 'क' और
'ख' एक हैं। समग्र ब्रह्मांड एक है। जगत् में केवल एक आत्मा है, एक सत्ता है;
और वही एक सत्ता जब देश-काल-निमित्त के माध्यम से रूपों में पड़ती है, त्यों
ही उसे बुद्धि, अहंज्ञान, सूक्ष्म भूत, स्थूल भूत आदि की संज्ञाएँ दी जाती
हैं। इस समग्र ब्रह्मांड में सब कुछ वह एक वस्तु है, जो विभिन्न रूपों में
प्रतिभासित मात्र हो रही है। जब उसका कुछ अंश मानो इस देश-काल-निमित्त के जाल
में पड़ता है, तब यह विभिन्न रूप ग्रहण करती है। उस जाल को हटा दो, सभी एक है।
अतः अद्वैत दर्शन के अनुसार समग्र विश्व आत्मा में एक है और यह आत्मा ही
ब्रह्मा है। ब्रह्मा जब ब्रह्मांड की पृष्ठभूमि पर प्रतीयमान होने लगता है, तब
उसे हम ईश्वर कहते है। जब वह इस क्षुद्र ब्रह्मांड के पश्चात् प्रतीयमान होने
लगता है, तब उसे आत्मा कहते हैं। अतः यह आत्मा ही मनुष्य का अभ्यंतरस्थ ईश्वर
है। केवल एक ही पुरुष है--वेदांत का ब्रह्मा, जब ईश्वर और मनुष्य, दोनों के
स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है, तब दोनों को इस एक रूप में जाना जाता है। यह
ब्रह्मांड स्वयं 'तुम' है; अविभक्त तुम। तुम इस समग्र जगत् में ओतप्रोत हो।
'समस्त हाथों से तुम काम कर रहे हो, समस्त मुखों से तुम खा रहे हो, समस्त
नासा-रंध्रों से तुम श्वास-प्रश्वास ले रहे हो, समस्त मन से तुम विचार कर रहे
हो।' समग्र जगत् ही तुम हो, यह ब्रह्मांड तुम्हारा शरीर है। तुम्हीं व्यक्त और
अव्यक्त जगत्, दोनों ही हो। तुम्ही जगत् की आत्मा हो तथा तुम्हीं उसका शरीर भी
हो। तुम्ही ईश्वर हो, तुम्ही देवता हो, तुम्हीं मनुष्य हो, तुम्हीं पशु हो,
तुम्ही उद्भिद् हो, तुम्ही खनिज हो, तुम्हीं सब हो-समग्र व्यक्त जगत् ही तुम
हो। जो कुछ है, सब तुम हो। तुम असीम हो। असीम को विभक्त नहीं किया जा सकता।
इसका कोई अंश नहीं हो सकता, क्योंकि तब प्रत्येक अंश असीम होगा, और तब अंश और
पुर्ण में कोई भेद नहीं रह जाएगा, जो एक असंगत बात है। अतएव यह बात कि तुम
श्री अमुक हो, कभी सत्य नहीं हो सकती, यह केवल दिवा-स्वप्न है। यह जान लो और
मुक्त हो जाओ। यही अद्वैत का निष्कर्ष है। मैं न तो देह हूँ, न इंद्रिय और न
मन ही; मैं अखंड सच्चिदानंद हूँ, मैं ही वह हूँ, मैं ही वह हूँ। यही यथार्थ
ज्ञान है, तर्क तथा बुद्धि तथा अन्य सब अज्ञान है। मैं तब कौन सा ज्ञान-लाभ
करूँगा ?' मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप हूँ। मैं कौन सा जीवन प्राप्त करूँगा? मैं
स्वयं जीवन स्वरूप हूँ ! मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि मैं जीवित हूँ;
क्योंकि मैं ही जीवनस्वरूप हूँ, एक सद्वस्तु हूँ और ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो
मेरे द्वारा प्रकाशित नहीं है, जो मुझमें नहीं है और जो मेरे स्वरूप में
अवस्थित नहीं है। मैं ही भूतसमूह के रूप में अभिव्यक्त हुआ हूँ। किंतु मैं एक
मुक्तस्वरूप हूँ। कौन मुक्ति चाहता है? कोई भी नहीं। यदि तुम अपने को बद्ध
सोचो, तो बद्ध ही रहोगे, तुम स्वतः ही अपने बंधन के कारण होओगे। यदि तुम अनुभव
करो कि तुम मुक्त हो, तो इसी क्षण तुम मुक्त हो। यही ज्ञान है-मुक्तिप्रद
ज्ञान। समग्र प्रकृति का चरम लक्ष्य ही मुक्ति है।
क्रमविकासवाद
आकाश और प्राण-तत्त्वों का अव्यक्त रूप से व्यक्त रूप में प्रक्षेपण होने, और
पुनः अव्यक्त रूप में लौट आने के विषय में भारतीय दर्शन और आधुनिक विज्ञान में
बहुत कुछ समानता है। आधुनिक लोग विकासवाद को मानते हैं, और योगियों का भी यही
मत है। परंतु मेरी राय में, योगियों द्वारा विकासवाद की जो व्याख्या की गयी
है, वह अधिक अच्छी है। जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात्--अर्थात् एक योनि से
दूसरी योनि में परिवर्तन प्रकृति की पूरक प्रक्रिया द्वारा होता है। मूलभूत
बात यह है कि हमारा एक योनि से दूसरी में परिवर्तन होता रहता है, और
मनुष्य-योनि सर्वश्रेष्ठ है। पतंजलि ने प्रकृत्यापूरात् अर्थात् 'प्रकृति की
पूरक प्रक्रिया' को किसानों के खेत सींचने की उपमा देकर समझाया है। हमारी
शिक्षा और प्रगति का उद्देश्य केवल मार्ग की बाधाओं को हटाना है। इनके हट जाने
पर मूल ब्रह्माभाव स्वयं ही प्रकाशित हो जाएगा। यह मान लेने पर फिर
जीवन-संग्राम का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जीवन में साधारण रूप से केवल दुःखमय
अनुभव ही होते हैं, जिनको संपूर्ण रूप से हटाया जा सकता है; उन्नति या विकास
के लिए उनकी आवश्यकता नहीं। यदि वे न भी होते, तो भी हमारी उन्नति होती। अपने
आपको अभिव्यक्त करना वस्तुओं का स्वभाव ही है। गतिशीलता बाहर से नहीं, किंतु
भीतर से आती है। प्रत्येक आत्मा सार्वजनीन अनुभवों की समष्टि होती है, जिसमें
वे पहले ही से बीजरूप में विद्यमान रहते हैं; अनुभवों की इस समष्टि में से
केवल वे ही व्यक्त हो पाते हैं, जिन्हें उपयुक्त परिस्थितियाँ प्राप्त होती
हैं।
तो, बाह्य वस्तुएँ केवल परिवेश प्रदान कर सकती हैं। ये प्रतियोगिताएँ, संघर्ष
और बुराइयाँ, जो हम देखते हैं, किसी क्रमसंकोच के कार्य नहीं हैं, न कारण हैं;
अपितु वे मार्ग की घटनाएँ मात्र हैं। यदि वे न भी रहें, तो भी मनुष्य विकसित
होते होते एक दिन ब्रह्मारूप हो जाएगा; क्योंकि बाहर आकर अपने आपको अभिव्यक्त
करना ब्रह्मा का स्वभाव ही है। मेरी राय में तो प्रतियोगिता के भयानक विचार की
अपेक्षा यह विचार कहीं अधिक आशाप्रद है। मैं इतिहास का जितना ही अध्ययन करता
हूँ उतना ही प्रतियोगिता वाला विचार मुझे भ्रांत प्रतीत होता है। कुछ लोगों का
मत है कि यदि मानव मानव के साथ लड़ाई न ठाने, तो उसकी प्रगति ही न होगी। मैं
भी पहले ऐसा सोचा करता था; पर अब मुझे दीख पड़ रहा है कि प्रत्येक युद्ध ने
मानव-उन्नति को आगे ठेलने के बदले पचास वर्ष पीछे फेंक दिया है। वह दिन अवश्य
आयेगा, जब हम इतिहास का अध्ययन एक विभिन्न दृष्टिकोण से करेंगे और समझ सकेंगे
कि प्रतियोगिता न तो कारण है, न कार्य; वह तो मार्ग की एक घटना मात्र है, और
विकास के लिए उसकी कोई आवश्यकता नहीं।
मैं समझता हूँ कि केवल पतंजलि का सिद्धांत ही ऐसा है, जिसे विवेकशील मनुष्य
मान सकता है। वर्तमान व्यवस्था से कितने दोष उत्पन्न होते हैं ! इसके द्वारा
प्रत्येक दुष्ट मनुष्य को दुष्टता करने की अनुमति सी प्राप्त है। मैंने इस देश
(अमेरिका) में ऐसे भौतिकी वैज्ञानिकों को देखा है, जो कहते हैं कि 'अपराधियों
को नेस्तनाबूत कर देना चाहिए, और यह कि केवल यही एक ऐसा उपाय है, जिससे समाज
से अपराध मिटाया जा सकता है। ये परिस्थितियाँ विकास में बाधा डाल सकती है,
परंतु उसके लिए आवश्यक नहीं हैं। प्रतियोगिता की सबसे भयानक बात तो यह है कि
कोई एक व्यक्ति परिस्थितियों पर भले ही विजय प्राप्त कर ले, पर जहाँ एक की जीत
होती है, वहाँ सहस्रों का नाश भी हो जाता है। अतएव यह बुराई ही है। जिससे केवल
एक को सहायता मिले और अधिकांश को बाधा पहुँचे, वह कभी अच्छा नहीं हो सकता।
पतंजलि कहते हैं कि ये संघर्ष केवल हमारे अज्ञान के ही कारण है, अन्यथा न तो
इनकी आवश्यकता है और न ये मानव-विकास के कोई अंश ही हैं। यह हम लोगों की
अधीरता है, जो इनका सृजन करती है। हममें इतना धैर्य नहीं कि अपना मार्ग धीरता
से तैयार करें। उदाहरणार्थ, नाटकघर में जब आग लग जाती है, तो थोड़े से ही, लोग
बाहर निकल पाते हैं। बाक़ी सब जल्दी निकलने की धक्का-धुक्की में एक दूसरे को
कुचल डालते हैं। नाटकघर की इमारत की अथवा जो दो-तीन व्यक्ति बचकर बाहर निकल
पाये, उनकी रक्षा के लिए वह कुचलना आवश्यक नहीं था। यदि सब धीरे-धीरे निकले
होते, तो एक को भी चोट न लगती। यही हाल जीवन में भी है। द्वार हमारे लिए खुले
पड़े हैं, और हम सब बिना किसी प्रतियोगिता या संघर्ष के, बाहर निकल सकते हैं;
किंतु फिर भी हम संघर्ष करते हैं। हम अपने अज्ञान से, अपनी अधीरता से संघर्ष
की सृष्टि कर लेते हैं। हम बड़े जल्दबाज़ हैं--हममें धीरज बिल्कुल है ही नहीं।
शक्ति की उच्चतम अभिव्यक्ति है अपने को प्रशांत रखना और स्वयं अपने पैरों पर
खड़े होना।